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त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार सप्तर्षि-संवत् १४७६३ में से वीर-निर्वाण संवत् तथा शककाल का अन्तराल अन्वेषणीय है। इस बृहती गणना में पांच सप्तर्षिचक्र फालतू जमा हैं। यथा-२७०० x ५ --१३५०० मूल संख्या से घटाने पर : १४७९३-१३५०० ..- शेष १२६३ । प्राचीन गणनानुसार १२२७ ई० पूर्व में वीरनिर्वाण संभव हुआ। अतः १२६३-१२२७ ...६६ ईसवी सन् में शकराजा हुआ।
इसी तर्ज पर सप्तर्षि संवत् १७८५ का समाधान भी विचारणीय है। परन्तु उसकी गणनाशैली इस गणनाशैली से जरा भिन्न है।
टिप्पणी : यद्यपि हमने सप्तर्षि संवत् के माध्यम से जैन कालगणना का अभ्यास किया है, जिसके परिणाम सुनिश्चित और साधु मिले हैं; तथापि हम अपने अनुसंधान से संतुष्ट नहीं हैं । हमें इस विषय पर और अधिक अभ्यास की आवश्यकता
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हम सम्बद्ध लेखक की अवधारणा को समझने में असमर्थ रहे हैं-यह हमारी बौद्धिक अक्षमता ही है । तुलसी प्रज्ञा के खंड १६/अंक ( के पृष्ठ ३५ की पंक्ति २५-२७ बड़ी उलझनपूर्ण हैं। उसको सारिणी में पलट कर देखते हैं :कलि नन्द शक विक्रम
ई० पूर्व
३१०१ १५०० २५०५ १००५
५६६ ३०४३ १५४३ ५३६-३८
५७-५६ सम्बद्ध लेखक के प्रस्तावित ५३८ विक्रम पूर्व (अर्थात् ५६५ ई० पूर्व) के किसी शकराजा की संस्तुति अथवा विश्रुति भारतीय इतिहास में नहीं है । ५३८ विक्रम पूर्व के शकराजा का प्रामाणिक परिचय उपलब्ध कराना सम्बद्ध लेखक का नैतिक कर्त्तव्य है । हमें इसकी प्रतीक्षा रहेगी। सन्दर्भ: १. वेदवाणी, सोनीपत (बहालगढ़) हरियाणा । वष ३३, अंक ८, पृ० १५। लेख
'सुमति तंत्र का कालचक्र' । जून, १९८१ २. (क) सरस्वती, इलाहाबाद । वर्ष ७४, पूर्ण संख्या ८८१; मई, १९७३
(ख) वेदवाणी, बहालगढ़ । वर्ष ३४, अंक ८; पृ० २० । जून, १९८२ ३. (क) हिन्दुस्तानी त्रैमासिक पत्रिका, इलाहाबाद । भाग ३७, अंक १, पृ० ६० । (ख) सम्मेलन पत्रिका, इलाहाबाद । भाग ६३, अंक-२। चैत्र-भाद्रपद १८६६
शत, १० ११३ । लेख 'उज्जयिनी और शक वश'। ४. त्रिलोक प्रज्ञप्ति में लिखा है-'वीरजिणे सिद्धिगदे चउ-सब इकसट्ठि वासपरिमाणे। कालम्मि अदिक्कन्ते उप्पन्नो एत्थ सगराया।" अर्थात् वीर निर्वाण से ४६१ वें वर्ष में
शकराज प्रतिष्ठित हुआ । यथा-ई० पू० ५२७-४६१ ६६ ईसवी पूर्व में हुआ। ५. प्राचीनतम जैनग्रंथों में से प्रतीत होता है -वीर निर्वाण संवत् १२२७ ई० पूर्व में हुआ। अधुनातन जैन शास्त्र प्रतिपादित करते हैं-धीर निर्वाण ५२७ ई० पूर्व में
खण्ड १६, बंक २ (सित०, ६०)
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