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नहीं हैं। इसका कारण अन्वेषणीय है । सभी प्रकार की कोटियों के अन्तर्गत विभिन्न पदार्थों का पहले श्रावक के बारह व्रतों के आधार पर भोगोपभोग परिमाण एवं प्रोषधोपवास आदि के रूप में और बाद में अष्टमूलगुण और बाइस अभक्ष्यों के रूप में वर्गीकरण किया गया है ।
आधार
१. सजीव घात, बहुघात बहुवध, बहु-जंतु योनि
स्थान
२. स्थावर जीव घात ( अनंत कायिक )
३. प्रमाद / मादकतावर्धक पदार्थ
४. रोगोत्पादक / अनिष्ट पदार्थ
सारणी १ : अभक्ष्यता के आधार
हेतु
दो या अधिकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति, उपस्थिति से हिंसा, स जीवों की हिंसा
५. अनुपसेव्यता / लोकविरुद्धता ६. अल्पफल - बहुविघात
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हिंसा
प्रत्येक / अनंतकाय जीवों की कंदमूल, बहुबीजक, कोंपल, अदरख, मूली, कच्चे फल, आर्द्र हरिद्रा
आलस्य, उन्मत्तता, चित्तविभ्रम
स्वास्थ्य के लिये अहितकर
स-स्थावर जीव हिंसा
७. अपक्वता / अशस्त्र प्रति हतता / अनग्निपक्वता
वनस्पति-- हमारे प्रमुख खाद्य
उदाहरण
पंच उदुंबर फल, अचार /
मुरब्बा आदि, द्विदल, चलितरस, रात्रि भोजन, मधु-मांसादि
मद्य, गांजा, भांग, अफीम चरस, तंबाकू आदि नशीले पदार्थ
इनके कारण सभी वनस्पति सजीव एवं अप्रासुक रहते हैं जल
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प्याज, लहसुन आदि गन्ने की गंडेरी (तेंदू, कलींदा, कांटे एवं गूदेदार पदार्थ
सामान्यतः हमारे खाद्य पदार्थों में कुछ जनित (दूध, दही, घृत आदि) तथा कुछ संगृहीत ( मधु आदि) को छोड़कर अधिकांश वनस्पति या वनस्पतिज ही होते हैं । आचारांग और दशवैकालिक' में मूल, कंद, पत्र, फल, पुरुप, बीज, प्रवाल, त्वचा, शाखा तथा स्कंध के रूप में वनस्पति की दस प्रकार की अवस्थायें बताई गई हैं । उनका रूढ़, बहुसंभूत, स्थिर, उत्सृत, गर्भित, प्रसूत एवं संसार चरणों में क्रमिक विकास होता है । आगमों एवं शास्त्रों में इन्हें प्रत्येक काय एवं अनंतकाय ( साधारण, निगोद) के रूप में वर्गीकृत किया है । इनके अन्य नाम भी हैं । इनसे कभी-कभी साधारण जन को भ्रांति भी हो जाती हैं । प्रत्येक काय के वनस्पतियों में एक पूर्ण शरीर में एक जीवता पाई जाती है। जबकि अनन्तकाय कोटि में एक शरीर में अनेक जीवता पाई जाती है । इनके शरीर के विभिन्न अंगों से नया प्रजनन हो सकता है । इसलिये शास्त्रों में इन्हें सामान्यतः अभक्ष्य ही, अहिंसक दृष्टि से, बताया है । सरस" ने सभी वनस्पतियों को चौदह रूपों में बताया
१६, अंक २ (सित०, ६० )
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