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वनस्पतियां हैं जो सैद्धांतिक दृष्टि से अभक्ष्य हैं । इनमें कुछ ऐसे पदार्थ और कोटियां हैं जो दोनों भेदों में आती है। उदाहरणार्थ-विभिन्न पत्र शाक या भाजिया प्रत्येक वनस्पति की हरित कोटि में आती हैं। इनका अनंतकायों में अनेक नामों से समाहरण है। मूली, हरित और कंद--दोनों में है। बेल की कोटि दोनों ओर है । पर इनके अन्तर्गत वनस्पतियों के नाम भिन्न हैं।
आगमों के अनुसार अर्धपक्व, अनग्निपक्व, अशस्त्रप्रतिहत वनस्पति चाहे वे किसी कोटि के हों, अभक्ष्य माने गये हैं, अन्य दशाओं में वे भक्ष्य हैं। मूलाचार में भी इनके अनग्निपक्वता की दशा में अनेषणीयता की चर्चा है। आचारांग और दशवकालिक में जल और उसके विभिन्न ओषनों के अतिरिक्त, लगभग तत्कालीन प्रचलित १०० वनस्पतियों के नाम दिये हैं। निशीथचूणि में भी तत्कालीन भक्ष्यों के रूप में प्रयुक्त होनेवाली ७२ वनस्पतियों के नाम हैं। यह मत समीचीन नहीं लगता कि सामान्य जनों के लिये वणित अभक्ष्यता के सिद्धांत श्रमणों पर लागू नहीं होते। अभक्ष्यों को धारणा का विकास
ऐसा प्रतीत होता है कि आगमोत्तर काल में भक्ष्याभक्ष्य विचार में अपक्वता एवं अशस्त्र प्रतिहतता की धारणा में परिवर्धन हुआ। जब उत्तरकाल में वनस्पतियों का वर्गीकरण हुआ, तब प्रत्येक कोटि की तुलना में अनंतकायिक कोटि का, अहिंसक दृष्टि से, सापेक्ष अभक्ष्यता का मत प्रस्तुत किया गया। इस दिशा में दिगम्बराचार्यों का अधिक योगदान रहा। उनके विवरण पर्याप्त निरीक्षण-क्षमता और उसकी तीक्ष्णता को व्यक्त करते हैं । शांतिसूरि ने भी ग्यारहवीं सदी में इसी मत का अनुकरण किया है। समय के साथ उत्तरवर्ती आचार्यों ने यह सोचा कि सामान्य जन का आहार साधु के समान प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। अतः उन्होंने अहिंसक दृष्टि बनाये रखते हुए श्रावकों के आहार संबंधी अनेक सूत्र बनाये। इस हेतु सर्वप्रथम व्रतों की धारणा प्रस्तुत की गई। इनके अन्तर्गत आहार को नियंत्रित करनेवाली भोगोपभोग परिमाण एवं प्रोषधोपवास आदि की प्रवृत्तियां विकसित हुई। प्रवचनसार" में तो केवल अरस, मधु और मांस रहित आहार को ही युक्ताहारी बताया है । समय के साथ, इनमें पर्याप्त कठोरता आने लगी। तब सरलता की दृष्टि से, अहिंसक दृष्टि के विकास एवं व्यवहार के लिये हिंसामय/ हिंसाजन्य खाद्यों के निषेध के लिये मूल गुणों या सार्वकालिक व्रतों की धारणा प्रतिपादित की गई । यह प्राचीन दिगम्बर या श्वेताम्बर ग्रंथों में नहीं देखी जाती । पांचवीं सदी के समन्तभद्र के मिश्र वर्गीकरण (अभक्ष्य त्याग, ब्रतपालन) की तुलना में आठवीं सदी के जिनसेन ने अष्ट सार्वकालिक व्रतों में केवल आठ अभक्ष्य पदार्थों को ही रखा११.३] मद्य, मांस, मधु का त्याग [ये जेवी क्रिया से प्राप्त होते हैं या इनमें सूक्ष्म एवं त्रस जीव दृष्टिगोचर होते हैं] और [४-८] पंचोंदुबर फल त्याग [इनमें भी सूक्ष्म जीव होते हैं] फलतः प्रारम्भ में मूलतः आठ पदार्थ हो अभक्ष्य माने जाते थे ।२ इन्हें सोमदेव, चामुंडराय, देवसेन, पद्मनंदि, आशाधर पंडित, राजमल, मेधावी और कुंथुसागर ने भी स्वीकृत किया है । शिवकोटि ने अपनी रत्नमाला में इन आठ मूलगुणों को बाल मूल गुण कहा है और वास्तविक मूलगुण समन्तभद्र के ही माने हैं। कहीं-कहीं मधु के खण्ड १६, बंक २ (सित०, ६०)
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