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इमल्शन में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है। इसे सरल करने के लिये यह पाया गया कि यदि प्रासुक या पैस्चुरीकृत दूध या मलाई को लैक्टिक एसिड बैसिली नामक बैक्टीरियाई किण्व या तक्त दही, तक्र या अम्ल पदार्थों से ऋतु व तापमान के अनुसार १०-१८ घंटे तक उपचारित किया जाए, तो दूध का दसीय भाग किंचित् किण्वित होने के कारण सरलता से पृथक् किया जा सकता है । इस क्रिया में दूध के कुछ विलेय अंश खट्टे लैक्टिक अम्ल या दही में परिणत होकर मक्खन में कुछ खटास पैदा करते हैं और उसे विशिष्ट स्वाद व गंध देते हैं। फलतः मक्खन में न केवल दूध की वसा ही रहती है, अपितु उसमें विद्यमान कैल्सियम आदि के लवण तथा केसीन आदि प्रोटीन भी रहते हैं।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि मक्खन प्राप्त करने में बेक्टीरियाई परिवर्तन होता है । ये बेक्टीरिया एक-कोशिकीग सूक्ष्म जीवाणु माने जाते हैं और अपने विकास के समय दूध के वसा-विहीन कुछ अवयवों को लैक्टिक अम्ल जैमे पाचक घटकों में परिणत कर उसे और भी उपयोगी बनाते हैं। इसी आधार पर दही और मट्ठ को स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम खाच माना गया है। वस्तुत: दही, तक और मक्खन-सभी दूध की विकृतियां हैं। इसीलिये आज इन्हें भोजन का अनिवार्य घटक माना जाता है। फलतः यह स्पष्ट है कि मक्खन का प्रभाव उत्तम है । संभवतः यही कारण है कि पहले इसे अभक्ष्य नहीं माना जाता था। इसकी अभक्ष्यता की मान्यता उत्तरवर्ती है। इसमें शास्त्रीय दृष्टि से उत्पाद दोष माना जा सकता है, परंतु प्रभाव दोष नहीं। अतः मद्य के विपर्यास में, यह बहुफल-अल्पधाती है और मद्य निषेध की तुलना में, इसके विषय में अल्प विवरण ही मिलता है । यदि बुद्धि एवं वीर्य-वर्धकता कोई दोष है, तो मक्खन निश्चित रूप से इस दोष से दूषित है । वैज्ञानिक दृष्टि से, मक्खन वसीय होने से उससे शरीर तंत्र के चालन के लिये अन्न की तुलना में दुगुनी ऊर्जा प्रदान करता है, अनेक विटमिन और लवण प्रदान करता है । इस आधार पर मक्खन की अभक्ष्यता गृहस्थ के लिये उतनी मतत्त्वपूर्ण न हो जितनी साधु के लिये संभावित है। (३-४) चलितरस और द्विदल
चलित रस शब्द से ऐसे खाद्य पदार्थों का बोध होता है जिनके प्राकृतिक रस या स्वाद में कुछ दिनों रखे रहने पर, किण्वित होने पर और संभवत: संधानित करने पर परिवर्तन आ गया हो । वैज्ञानिक दृष्टि से तो दूध को भी चलितरस मानना चाहिये क्योंकि यह अनेक प्रकार के आहार-घटकों के जीव-रासायनिक परिवर्तन के फलस्वरूप सवित होता है । पर यह खट्टा नहीं होता, अत: इसे चलितरस या विकृति नहीं माना जाता। इसीलिये इसके उपयोग में धार्मिक प्रतिबंध नहीं है। पर इसके किण्वन से उत्पन्न सभी उत्पाद चलितरस होते हैं। संभवत: घी चलितरस इसलिये नहीं माना जाता कि वह भी खट्टा नहीं होता । यह सामान्य धारणा है कि जल युक्त, बासे खाद्य पदार्थ (इन्हें वायुजीबी जीवाणु अपना घर बनाकर, विकसित होते समय अंशतः विदलित करके उन में खटास आ जाती है) अथवा किण्वन क्रिया से तैयार किये पदार्थों में विकृति के कारण खटास आ जाती है और वे विकारी हो जाते हैं । इस दृष्टि से सभी दक्षिण भारतीय प्रमुख खाद्य (इडली, डोसा, उत्तपम् ढोकला, मट्ठा आदि) अभक्ष्यता को कोटि
६, अंक २ (सित०, ६०)
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