Book Title: Tulsi Prajna 1990 09
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ अभक्ष्यता के आधार 1 जैन शास्त्रों में अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य के रूप में भक्ष्य पदार्थों चार वर्गों के निरूपण के साथ सामान्य जन और साधुओं को कौन-से पदार्थ आहार के रूप में ग्रहण करने चाहिये, इस पर चर्चा अपेक्षया कम है, पर कौन-से खाद्य ग्रहण नहीं करने चाहिये, इस पर विस्तृत विवरण पाया जाता है । आचारांग में साधुओं को अपक्व, अशस्त्रपरिणत तथा अल्पफल- बहुउज्झयणीय वनस्पति या तज्जन्य खाद्यों का अप्रासुक होने के कारण निषेध किया गया है। वहां अर्धपक्व, अयोनिबीज - विध्वस्त एवं किण्वित ( (बासी, सड़े) पदार्थों के भक्षण का भी निषेध है । इस निषेध का मूल कारण जीवरक्षा की भावना एवं अहिंसक दृष्टि ही माना जाता है । सामान्यतः इस प्रकार का निषेध श्रावकों पर भी लागू होना चाहिये । इस दृष्टि का स्पष्टीकरण समंतभद्र, वट्टेकर, पूज्यपाद, अकलंक तथा अन्य आचार्यों ने भी किया है। उन्होंने खाद्यों की अभक्ष्यता के आधार के रूप में (i) त्रस जीव-घात (ii) प्रमाद परिहार (iii) अनिष्टता और (iv) अनुप - सेव्यता को माना है ।" इसके साथ, आचारांग के अल्पफल बहु- उज्झयणीय को (v) अल्पफल - बहुविघात में परिणत कर दिया है । इससे बहुफल - आल्पघाती पदार्थों की आंशिक भक्ष्यता संभव लगती है । भास्कर, नंदि और आशाधर आदि उत्तरवर्ती आचार्य एवं पंडित भी इन्हीं पांचों कोटियों को अभक्ष्यता का आधार मानते हैं । इनसे स्पष्ट है कि अभक्ष्यता का आधार केवल अहिंसक ही नहीं है, अपितु मादकता, रोगोत्पादकता एवं अनुपसेव्यता भी है जो स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए हानिकारक है। शास्त्री ने उपरोक्त मतों के समन्वय से खाद्यों की अभक्ष्यता के पांच आधार लोक विरुद्धता के आधार को पूर्वाचार्यों ने अनुपसेव्यता की कोटि में माना है । अकलंक ने तो अखाद्य वस्तुओं को ही अनुपसेव्य कोटि में माना है । इन आधारों को सारणी १ में संक्षेपित किया गया है । इस सारणी में आधारों की संख्या अधिक है, फिर भी, चूंकि बिन्दु ६ व ७ वनस्पतियों से संबंधित हैं, अतः इन्हें कोटि - २ में ही समाहित करने पर अभक्ष्यता के मुख्य आधार पांच ही मननीय हैं। अनेक ग्रंथों में विभिन्न कोटियों के कुछ उदाहरण भी दिये गये हैं । कुछ उदाहरण अनेक कोटियों में आते हैं । आगमकाल में अनेक अपक्व, अशस्त्र - परिणत एवं अप्रासुक वस्तुओं के अनेषणीय मानने का उल्लेख मिलता है पर दिगम्बर ग्रंथों में मूलाचार के उत्तरवर्त्ती काल में इस मान्यता के उल्लेख *जैन केन्द्र, रीवा, म० प्र० बताये हैं । इनमें २० जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार मंदलाल जैन* Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रचा www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80