Book Title: Tulsi Prajna 1990 09
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ पर्याप्तक कहलाते हैं । पर्याप्तक जीवों के वर्णादि के भेद से हजारों भेद कहे गए हैं।" क्योंकि जो बादर पृथ्वी काय पर्याप्तक हैं वे अपने योग्य चार पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेते हैं और उनके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के भेद से ही हजारों भेद बन पाते हैं । जैसे- - वर्ण के पांच भेद, गंध के पांच तथा स्पर्श के आठ भेद होते हैं फिर प्रत्येक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श में अनेक प्रकार की तरतमता होती है । जैसे- भ्रमर, कोयल और काजल आदि में कृष्ण वर्ण की न्यूनाधिकता का पाया जाना । अतः कृष्ण, कृष्णतर, कृष्णतम,...... असंख्यात् कृष्ण आदि कृष्ण के अनेक भेद हो गए। इसी प्रकार नील, पीतादि वर्ण के विषय में भी समझना चाहिए। गन्ध, रस और स्पर्श से संबंधित भी ऐसे ही अनेक भेद होते हैं । इसी प्रकार वर्णों के परस्पर मिलने से भी कई प्रकार के वर्ण निष्पन्न होते हैं। जैसे—धूसर वर्ण, चितकबरा आदि । इसी प्रकार एक गन्ध में दूसरी गन्ध के मिलने से, एक रस में दूसरे रस के मिश्रण दूसरे स्पर्श के संयोग से हजारों भेद गंध, रस, स्पर्श की तरह बादर पृथ्वीकाय के लाखों योनि भेद वर्ण, गंध, रस निष्पन्न हो जाते हैं । करने से, एक स्पर्श के साथ अपेक्षा से हो जाते हैं । इस और स्पर्श के आधार पर इस तरह जैनग्रंथों में प्रतिपादित पृथ्वीकाय की चर्चा के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैनाचार्यों ने पृथ्वीकाय का जो विवरण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है वह आध्यात्मिक भावना से पूर्ण होने के साथ-साथ वैज्ञानिक भी है। पृथ्वीकाय बाह्य संवेदनाओं की अनुभूति अपनी एक मात्र इंद्रिय स्पर्शन् की सहायता से करता है तथा वह चार पर्याप्तियों से युक्त होता है, यद्यपि कुछ पृथ्वीकाय अपर्याप्तिक भी होते हैं । पृथ्वीकाय इन्द्रिय के द्वारा संवेदनाओं को ग्रहण करता है और चार पर्याप्तियां यथा - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास के द्वारा क्रम से आहार ग्रहण, शरीर तथा इन्द्रिय का निर्माण एवं श्वांस प्रश्वांस की क्रिया का सम्पादन किया जाता है । आधुनिक विज्ञान में उसे जीव कहा जाता है जो आहार लेता हो, उस आहार का पाचन करता हो, पाचक आहार को रस में परिवर्तित कर उस रस से शरीर के अंगों का निर्माण करता हो तथा श्वासोच्छ्वास की क्रिया सम्पादन करता हो एवं बाह्य संवेदनाओं की अनुभूति भी करता हो । पृथ्वीकाय जीव पर्याप्ति शक्ति और स्पर्श इंद्रिय की सहायता से इन सब क्रियाओं का सम्पादन करता है, तात्पर्य यह है कि यह जीव है । इसे जीव कहलाने हेतु आधुनिक विज्ञान सम्मत सभी लक्षण इसमें मिलते हैं । यही कारण है कि जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित पृथ्वीकाय की यह अवधारणा वैज्ञानिक तथ्यों से पूर्ण है । पृथ्वीका की अवधारणा में बादर पृथ्वीकाय के अंतर्गत सात प्रकार की मृत्तिका तथा ४० प्रकार के मिट्टी, पत्थर, लोह, चांदी, सोना, हडताल, गोमेद, चंदनादि को भी जीव मान लिया गया है। ये सभी जीव हैं । इसके पीछे जैनाचार्यों का तर्क मात्र इतना ही है कि पृथ्वी स्वयं जीव है और ये सभी किसी न किसी रूप में पृथ्वी से जुड़े हैं । मात्र इतना ही कह देने से इन सबको जीव नहीं माना जा सकता है। हां, धार्मिक भावना के आधार पर इन्हें जीव माना जा सकता है और इस अर्थ में यह आध्यात्मिक तुलसी प्रज्ञा १५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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