Book Title: Tulsi Prajna 1990 09
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ पूर्ण नहीं कर पाते हैं, उन्हें अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय कहा जाता है । अपर्याप्त जीव दो प्रकार के होते हैं - (अ) लब्धि से अपर्याप्त और ( ब ) करण से अपर्याप्त । (अ) लब्धि से अपर्याप्त- जो जीव अपर्याप्त रह कर ही मर जाते हैं, उन्हें लब्धि से अपर्याप्त जीव कहा जाता है । लब्धि का अर्थ होता है कुछ उपलब्ध करना और जो जीव बिना कुछ उपलब्ध किए ही मर जाता है, उसे लब्धि से अपर्याप्त जीव कहा जाता है । (ब) करण से अपर्याप्त जीव-जिन जीवों की पर्याप्तियां अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, परंतु भविष्य में पूर्ण होंगी और उनमें ऐसी सामर्थ्य भी है, तो ऐसेही सूक्ष्म अपर्याप्त जीव को करण से अपर्याप्त जीव जहा जाता है । मनुष्य या पशु के शुक्राणु को अपर्याप्त जीव की श्रेणी में रखा जा सकता है । यह सामान्य सी बात है कि शुक्राणु को जब उचित माध्यम मिलता है तो वे एक पूर्ण विकसित जीव बनते हैं और सभी तरह की पर्याप्तियों से युक्त होते हैं । परंतु उचित माध्यम नहीं मिलने के कारण ये नष्ट हो जाते हैं और एक पूर्ण विकसित जीव नहीं बन पाते हैं । इस दृष्टि से पर्याप्ति पूर्ण करने से पूर्व मर जाने के कारण ये लब्धि से अपर्याप्त जीव हैं तथा पर्याप्ति पूर्ण करने की क्षमता इनमें होती है अतः ये करण से अपर्याप्त भी हैं । (ख) बादर पृथ्वीकाय जीव-बादर नाम कर्म के उदर से जिस जीव की उत्पत्ति होती है उसे बादर जीव कहा जाता है और इस बादर नाम कर्म के पृथ्वीकाय से जुड़ जाने पर ऐसे जीव को बादर पृथ्वीकाय जीव कहते हैं । बादर का दूसरा अर्थ स्थूल भी होता है । इसका शरीर प्रतिघात सहित होता है । स्थूलता के कारण ये दूसरों का प्रतिघात तो करते ही हैं और स्वयं इनका भी प्रतिघात संभव है । इनका प्रत्यक्षीकरण इन्द्रियों के द्वारा संभव है । चूंकि ये स्थूल होते हैं अतः इनका स्थान इस लोक में निश्चित होता है । सूक्ष्र जीव की तरह ये लोक में चारों ओर व्याप्त नहीं होते हैं । " बादर पृथ्वीका जीव दो प्रकार के होते हैं" - ( क ) श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय और (ख) रूक्ष बादर पृथ्वीकाय । (क) लक्षण बादर पृथ्वीकाय - कोमल, मृदु मृत्तिका या मिट्टी ही जिन जीवों का शरीर है, उन्हें लक्षण बादर पृथ्वीकाय जीव कहा जाता है । जनग्रंथों में सात प्रकार के श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय का उल्लेख मिलता है २ १. कृष्ण श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय, २ . नील लक्षण बादर पृथ्वीकाय, ३ रक्ताभ (लाल ) श्लक्षण बादर पृथ्वी४. पीत लक्षण बादर पृथ्वीकाय, ५. शुक्ल या श्वेत श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय, ६. पाण्डू लक्षण बादर पृथ्वीकाय और ७ पनक श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय । परंतु आचारांग नियुक्ति में मात्र पांच प्रकार के ही श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय का उल्लेख किया गया है - कृष्ण, नील, लाल, पीला और शुक्ल ।" काय, लक्षण बादर के प्रकार में संख्या का यह अंतर क्यों आया है यह एक शोध का विषय है क्योंकि अगर इस प्रकरण पर विचार किया जाए तो हमारे समक्ष दो तीन तें प्रकाश में आती हैं । जैनग्रंथों में पांच प्रकार के वर्णों का उल्लेख मिलता है और खण्ड १६, अंक २ ( सित०, ६० ) १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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