Book Title: Tulsi Prajna 1990 09
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ इसकी सजीवता पृथ्वी में उपस्थित जीवों पर आधारित नहीं है। जैनग्रंथों में पृथ्वीकाय का विभाजन दो प्रकार से किया गया है -(क) सूक्ष्मपृथ्वीकाय और (ख) बादर पृथ्वीकाय। (क) सूक्ष्मपृथ्वीकाय-सूक्ष्म कर्म के उदय से जिन जीवों की उत्पत्ति होती है, उन्हें सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव कहते हैं । यह अत्यंत सूक्ष्म होता है, यह न तो किसी का घात कर सकता है और न स्वयं किसी के द्वारा इसका घात संभव है । तात्पर्य यह है कि सूक्ष्मपृथ्वीकाय का प्रतिघात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु से संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय का प्रत्यक्ष इंद्रियों के द्वारा संभव नहीं है अर्थात् यह इंद्रियों का विषय नहीं बन सकता है । ये सूक्ष्मपृथ्वीकाय जीव नाना प्रकार के होते हैं और संपूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं । सूक्ष्मपृथ्वीकाय जीव दो प्रकार के होते हैं - (१) पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय और (२) अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय । (१) पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय - स्वयोग्य अर्थात् अपने योग्य पर्याप्ति सहित जो जीव होता है, वह सूक्ष्म पर्याप्ति पृथ्वीकाय जीव कहलाता है। पर्याप्ति जीव की एक शक्ति है जिसके द्वारा वह पुद्गल या तत्व में उपस्थित रस, रूप आदि को ग्रहण कर लेता है और इसकी सहायता से इंद्रिय, शरीर आदि का निर्माण करता है। जैनग्रथों में छह प्रकार की पर्याप्तियों का उल्लेख मिलता है -(१) आहार पर्याप्ति, (२) शरीर पर्याप्ति, (३) इंद्रिय पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति (५) भाषा पर्याप्ति और (६) मन पर्याप्ति । १. माहार पर्याप्ति-बाह्य आहार को रस रूप में परिवर्तित करने की शक्ति आहार पर्याप्ति है । इस पर्याप्ति शक्ति के द्वारा जीव आहार पुद्गल को रस में परिवर्तित करता है । आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में यह जीव की पाचन क्रिया का ही दूसरा नाम है। २. शरीर पर्याप्त--जिस शक्ति के द्वारा आहार रस को सात धातुओं-(१) रस, २. रक्त, ३. मांस, ४. चर्बी, ५. हड्डी, ६. मज्जा और ७. वीर्य में परिवर्तित किया जाता है-इन्हीं सात धातुओं से शरीर का निर्माण होता है। शरीर पर्याप्ति शक्ति संभवतः बाधुनिक विज्ञान में प्रतिपादित चयापचय की क्रिया का ही नाम हो । चयापचय की क्रिया के द्वारा ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रासायनिक परिवर्तन होते हैं और इनके फलस्वरूप शरीर का निर्माण होता है। ३. इन्द्रिय पर्याप्ति-शरीर पर्याप्ति के द्वारा जो धातु बनते हैं उन धातुओं को इंद्रिय रूप में परिवर्तित करने की शक्ति का नाम इन्द्रिय पर्याप्ति है। आधुनिक जीव विज्ञान में काय निर्माण की प्रक्रिया जिसे मारफोलॉजी कहा जाता है, वह संभवतः इंद्रिय पर्याप्ति ही है । क्योंकि काय निर्माण की क्रिया के द्वारा ही जीव के शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण होता है । चूंकि इन्द्रिय भी शरीर का ही अंग है और वस्तुतः यह भी शरीर हैं और इन्द्रिय पर्याप्ति के द्वारा इन्द्रियों का ही निर्माण होता है। ४. श्वासोच्छवास पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल को ग्रहण कर श्वासोखण्ड १६, अंक २, (सित., ..) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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