Book Title: Tulsi Prajna 1990 09
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ (vi) विशेषावश्यक भाष्य २ ७३ . (१०१ से २०० गाथाएं) (vii) पज्जोसवणा (कल्पसूत्र २३२ से २६१ संपा. पुण्यविजयजी) १२ (viii) बृहत् कल्पसूत्र, अ. १ १७ । (घासीलालजी) (ix) सूत्रकृ० इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ संस्करण (ख) म० ज० विद्यालय (x) पण्णवणासूत्र (सूत्र १ से ७४, ३ २० १३६ से १४७) (xi) षट्खण्डागम (१.१ से ८१ सूत्र) ३ १६ (ब) व के लोप की स्थिति __ मध्यवर्ती वकार का प्रायः लोप होता है ऐसा जो नियम दिया गया है वह भी उचित नहीं लगता है । पिशल महोदय (१८६) के अनुसार कभी-कभी ही लोप होता है। मेहेण्डले के अनुसार (पृ० २७४-२७५) शिलालेखों में मध्यवर्ती वकार का लोप क्वचित् ही होता है । साहित्य में व का लोप यथावत् प्रतिशत यथावत् (i) स्वप्नवासवदत्तम् (अंक १,२,३) ० ४६ १०० (ii) गाथासप्तशती (३.१-५०) १० १२ (iii) सेतुबन्धम् (सर्ग २.१ से ४६) १५ स्वप्नवासवदत्तम् जैसी प्राचीन कृति में व का लोप नहीं मिलता है जबकि परवर्ती महाराष्ट्री'प्राकृत कृतियों गा० स० श० और से० ब० में व का लोप मिल रहा है । क्या इसी कारण वररुचि को व के लोप का सूत्र में उल्लेख करना पड़ा या परवर्ती सम्पादकों पर वररुचि का प्रभाव पड़ा । नीचे दिये जा रहे अर्धमागधी और शौरसेनी के प्राचीन ग्रन्थों की भाषा का विश्लेषण भी यही साबित करता है कि उनमें वकार का प्रायः लोप नहीं मिल रहा है। लोप यथावत् प्रतिशत यथावत् (iv) इसिभासियाई (क) अ० २६ वर्धमान ० १४ १०० (ख) अ० ३१ पाव १०० (v) सूत्रकृ• इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ १०० (शेषांश पृष्ठ ३४ पर तुलसी प्रज्ञा ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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