Book Title: Tripurabharatistav
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 12
________________ परमेश्वर की अपेक्षा से जीवात्मा अल्पज्ञ होने से पशु है ।' जीवात्मा व्यापक है, नित्य है, अनेक ( = प्रतिशरीर भिन्न) है, कर्ता । जीवात्मा = पशु के तीन भेद है ।। सकल, प्रलयाकल और विज्ञानाकल । अन्य रीति से देखा जाये तो जीवात्मा के दो भेद है-सकल और निष्कल । सकल = कलासे सहित जीवात्मा । निष्कल = कला सम्बन्ध से रहित जीवात्मा । निष्कल पशु के दो प्रकार है । सृष्टि के प्रलय के कारण अकल और विज्ञान के कारण से अकल । सकल : 'माया' समग्र. सृष्टि का मूलभूत तत्त्व है । प्रलयकाल में भी माया का नाश नहीं होता । उस समय में उसकी बीजावस्था होती है । सृष्टि के आरंभकाल में परमेश्वर के सन्निधान से माया का कला के रूप में परिणाम होता है । 'कला' माया का सर्वप्रथम परिणाम है । कला स्वयं अचेतन है फिर भी वेतन को परतन्त्र रहती है। वह सूक्ष्मतर है और सत्त्वादि गुणत्रय से रहित है । प्रलयकाल में कला का विनाश होता है । कला से 'काल' की उत्पत्ति होती है, काल एक ही है । काल से पुण्यापुण्य कर्म रूपा 'नियति' जन्म लेती है । नियति से 'विद्या' का प्रादुर्भाव होता है । विद्या का अर्थ है जीवात्मा का चित्तनामक गुण, विद्या प्रतिजीव भिन्न है । विद्या से 'राग' की उत्पत्ति मानी गई है, १. ब्रह्माद्याः स्थावरान्ताश्च देवदेवस्य शलिनः । पशवः परिकीर्त्यन्ते समस्ताः पशुवर्तिनः ॥ ब्रह्माद्याः स्थावरान्ताश्च पशवः परिकीर्तिताः । तेषां पतिर्महादेवः श्रुतः पशुपतिः श्रुतौ ॥ २. चेतनपरतन्त्रत्वे सति अचेतना कला । 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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