Book Title: Tripurabharatistav
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 42
________________ उत्थानिका सर्वज्ञं पुण्डरीकाक्षं शङ्करं नाभिसम्भवम् । प्रणम्य टीकां वक्ष्येऽहं सङ्क्षेपेण लघुस्तवे ॥ इह हि पूर्वं केनचिन्महानरेन्द्रेण निजसभायां दूरदेशाभ्यागतः समस्तशास्त्रपारङ्गमः कोऽपि पण्डिताग्रणीः स्वविद्याविशेषोत्कर्षं पृष्टः, शीर्षे स्वकरकमलविन्यासमात्रेण सर्वथा निरक्षरस्यापि शिशोर्गाङ्गतरङ्गानुकारिणीं तत्कालाभिनवकाव्यकर्त्तव्यतामाह । ततश्च सद्यो भूपभ्रूविक्षेपमात्रेण राजपुरुषैरुपाहूतः स्पष्टमस्पष्टोऽष्टवर्षदेश्यो बालकः संस्राप्य कौसुम्भवस्त्रालङ्कृतः पुरस्तादुपवेश्य मस्तके दक्षिणहस्तं धृत्वा वदेति विदुषा साक्षेपं भाषितोऽनेककर्मक्षममन्त्रपदगर्भाम् ऐन्द्रस्येव शरासनस्येत्याद्येकविंशतिकाव्यमय नवकोटिकात्यायनीस्तुतिं व्याजहार । तस्याश्च स्वतोऽपि मन्दमतिसत्त्वानुकम्पया विवरणमभिदध्महे । भाषा श्रीकौशल्यायनिं नत्वा वाग्देव्याश्च पदद्वयम् ॥ श्रीलघुस्तवकाव्यस्य कुर्वे भाषां यथामति ॥ १ ॥ यह श्रीलघुस्तवराज, किस कारण से बनाया गया था इस विषय पर कुछ विचार किया जाता है । कुछ वर्षों पहले सब शास्त्रों का पारगामी एक श्रेष्ठ पण्डित घूमता घूमता किसी बड़े महाराज की सभा में आया। राजा ने उसको पूछा कि 'क्या आप चमत्कारिक विद्या जानते हैं ?' तब उसने प्रत्युत्तर दिया कि - 'मैं किसी बिलकुल अनपढ़ बालक के शिर पर हाथ धर देता हूँ तो वह बालक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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