Book Title: Tripurabharatistav
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 23
________________ शैव और शाक्त तन्त्र में दक्षिणमार्ग और वाममार्ग दोनों को स्थान प्राप्त है । वैष्णवतन्त्र केवल दक्षिणमार्गी है । तन्त्रो के प्रयोग का निरुपण करने वाले शास्त्रों को प्रतिपाद्य विषय भेद से तीन श्रेणि में बाँटा गया है । आगम, यामल और तन्त्र । इन शास्त्रो में कहा गया है कि-'कलियुग में वैदिक मन्त्र और साधन प्रभावहीन होगे आगमविधान से ही देवता प्रसन्न होंगे । आधुनिक इतिहासकारों का मत है कि-'तन्त्र में निर्दिष्ट मन्त्रो की लिपि बांग्लालिपि से मिलती है इसलिये इन तन्त्रों को प्राचीन नहीं मान सकते ।' आर्यावर्त की ब्राह्मणपरम्परा के तन्त्रप्रयोगशास्त्र का यह अतिसंक्षिप्त दिशा दर्शन है । बौद्ध तन्त्र पर इसका अधिकांश प्रभाव रहा है । जैन धर्म की दृष्टि में 'तन्त्रप्रयोग' तन्त्रप्रयोग जैन की धर्म के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन ... रसप्रद होगा । जैनतन्त्र : जैनधर्म के दो मूलभूत तत्त्व है । कर्म का सिद्धांत और अहिंसा । संसारी जीव की हरेक प्रतिक्रिया और उसका फल कर्म से प्रभावित रहता है । आकांक्षा और उसकी पूर्ति, साधनो की प्राप्ति और संतोष कर्मानुसार ही मिलता है । कर्म के सिद्धांत के कारण ऐहिक आकांक्षा की पूर्ति के हेतु से प्रयोजित तन्त्रप्रयोग का महत्त्व जैन धर्म में बहुत ही गौण है ।। देवताओं को संतुष्ट करने के लिये तन्त्र में जिस विधि का निर्देश किया है वह हिंसा से व्याप्त है। फलतः उद्देश्य और साधना दोनों दृष्टिकोण से तन्त्रप्रयोग जैन धर्म के मूलभूत सिद्धांत से प्रतिकूल है । श्री सूत्रकृतांग सूत्र में (२.३.१८) ऐसे तन्त्रप्रयोग को पापश्रुत कहा गया एवं, उसके प्रयोक्ता मुनि की गर्दा की गइ है । वह अनार्य है विप्रतिपन्न है और मरकर किल्बि १. आगमोक्तविधानेन कलौ देवान् यजेत् सुधीः । न हि देवाः प्रसीदन्ति कलौ चान्यविधानतः ॥ (विष्णुयामल) कलौ आगमकेवलम् । (कुलार्णवतन्त्र) 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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