Book Title: Tripurabharatistav
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ रखा । प्राचीन परम्परा थी । नायक-नायिका का आलंबन न हो वहाँ केवल रतिभाव मानना । भक्तिसम्प्रदाय ने देव-देवी के आलंबन को भी रसजनक माना । भक्तिरस की स्थापना की गइ । शांत रस में निर्वेदभाव प्रमुख रहता है । भक्तिरस में समर्पणभाव । और स्तोत्रसाहित्य का एक मात्र आधार बना भक्तिरस । लघ्वाचार्य भक्तिरस के उन्मत्त गायक है । आपने लिखा हुआ यह वृत्त अद्भुत है। दृष्ट्वा सम्भ्रमकारी वस्तु सहसा ऐ ऐ इति व्याहृतं, येनाकतवशादपीह वरदे ! बिन्दुं विनाऽप्यक्षरम् । तस्याऽपि ध्रुवमेव देवि ! तरसा जाते तवानुग्रहे; वाचस्सूक्तिसुधारसद्रवमुचो निर्यान्ति वक्त्राम्बुजात् ॥ केवल यह एक ही स्तुति इतनी तो भावप्रवण है कि भक्तिरस के सहस्रसंवेदन से मन भर जाता है । सरस्वती को याद करना तो लाभकर है ही । सरस्वती का मन्त्रबीज ऐंकार भी लाभकर है, और कितनी हद तक ? आदमी गभराकर ऐ ऐ करने लगता है, बिन्दु से विहीन ऐ-कार हो लेकिन सरस्वती का अनुग्रह ऐसे आदमी पर हुआ तो वह भी अमृतमधुरवाणी से अलंकृत हो जाता है । इसे अतिशयोक्ति कहे, स्वभावोक्ति कहे या फिर उत्प्रेक्षा ? उद्दाम कल्पना उत्प्रेक्षा में होगी । चित्तरंजक वस्तुविन्यास स्वभावोक्ति में होगा और असंबंध में संबंध रूप अतिशयोक्ति भी यहाँ हो सकती है। कहाँ भीरु आदमी का ऐ ऐ रख और कहाँ महासरस्वती प्रसाद रूप ऐंकार । सरस्वती का साक्षात् दर्शन कराते हुए लध्वाचार्य लिखते है : वामे पुस्तकधारिणीमभयदां साक्षत्रजं दक्षिणे, भक्तेभ्यो वरदानपेशलकरा कर्पूरकुन्दोज्जवलाम् । उज्जृम्भाम्बुजपत्रकान्तनयनां स्निग्धप्रभालोकिनी अतिशय सरल शब्दन्यास करके लध्वाचार्य रुकते नहीं, यहाँ पर कवित्व दिखाना है, स्तुति में भक्ति है और भक्ति का रस शब्दों से व्यक्त 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122