Book Title: Tripurabharatistav
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 25
________________ से वश होकर मनुष्यो को सहाय करते है । ग्रहादिस्वरूप ज्योतिष्क देव का प्रभाव प्रत्यक्ष है । अधिकांश तन्त्र साधना में व्यंतर और भुवनपति देव निकाय के देव की उपासना होती है । भूत-प्रेत-पिशाचादि व्यंतर निकाय के देव है और यक्ष-यक्षिण्यादि भुवनपति निकाय के । वैमानिकादि चार प्रकार के देव सम्यग्दृष्टि भी होते है और मिथ्यादृष्टि भी । सम्यग्दृष्टि देव जिनमार्ग में श्रद्धा रखते है और जिनभक्तो को सहाय करते है । सम्यग्दृष्टि देव स्मरण मात्र से जिनभक्तो की वैयावृत्य करते है, शांति करते है समाधि प्रदान, उपसर्गनिवारण करके सहायक बनते है । ( वेयावच्चगराणं, संतिगराणं, सम्मद्दिट्ठि समाहिगराणं ) मिथ्यादृष्टि देव जिनमार्ग को साधना में बाधक होते है । निष्काम मोक्षमार्ग की साधना में सहाय प्राप्ति के लिये और बाधानिवृत्ति के लिये दैवी शक्ति की उपासना की जाती है । दैवी साधना का अन्य एक हेतु 'जिनशासन की प्रभावना' है । मन्त्र - विद्या की सहायता से जिनशासन को जनजन के हृदय में स्थिर करनेवाले श्रमण को अष्ट प्रभावक में से एक 'मन्त्रप्रभावक' की उपाधि प्राप्त होती है । जिनशासन का इतिहास ऐसे मन्त्रप्रभावकों से समृद्ध है । गणधर भगवंत, श्रुतकेवली भगवंत के इलावा आर्यश्री खपाचार्य, आर्य श्री रोहणाचार्य, श्रीसिद्धसेनदिवादरसूरिजी नागार्जुन, श्रीयशोभद्रसूरि श्रीमानदेव - सूरिजी श्री जिनेश्वरसूरिजी श्री वादीदेवसूरिजी, श्री हेमचंद्रसूरिजी, श्रीमलयगिरि - सूरिजी, श्रीमुनिसुंदरसूरिजी श्रीशांतिसूरिजी इत्यादि अनेक मन्त्रविद्याशक्तिसम्पन्न आचार्य जैन परम्परा में हुए । " शासन के रक्षक २४ यक्ष तथा २४ यक्षिणी की सहायता से यह कार्य होता है । जैसा कि पहेले कहा जा चूका है दैवी साधना में हिंसा का आश्रय वर्ज्य है और मलिन आशय वर्ज्य है । चारित्र - संयम - मानसिक एकाग्रता और जाप पर ही विशेष बल दिया जाता है । प्रतिष्ठा साधनादि विधान में जो पूजाविधि आदि का विशेष प्रयोग देखा जाता है वह नैमित्तिक और आप वादिक है । इस प्रकार जैन धर्म के अनुसार तन्त्रप्रयोग में सहायक भुवनपति और व्यंतर कोटिके देव है । शासन रक्षक यक्ष-यक्षिणी, १६ विद्यादेवी, जयादि देवी, श्रुतदेवी, क्षेत्रपाल, लोकपाल, दिक्पाल इत्यादि देव सकाम साधना के 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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