Book Title: Tripurabharatistav
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 24
________________ षिक योनि में जानेवाला है । उत्तराध्ययन सूत्र में ऐसे मुनि को 'पापभिक्षु' कहा गया । श्री दशवैकालिक में तन्त्रप्रयोग ज्योतिष-भैषजादि शास्त्रो को 'भूताधिकरण पद' कहा गया है। क्योंकि यह मार्ग ऐहिक लक्ष्य और हिंसा से व्याप्त है। लक्ष्यशुद्धि, साधनशुद्धि और साधनाशुद्धि को जैन शास्त्रों में बहुत ही महत्त्व दिया है । मोक्षमार्ग से प्रतिकूल लक्ष्य, अहिंसा के असाधक साधन, और संयम की विरोधी साधना जहाँ हो वह मार्ग ऊर्ध्वगामी नही है । अधोगामी जैन धर्म में जो तन्त्रप्रयोग प्रचलित है उसमें इन शुद्धि का ख्याल सर्वप्रथम रखा गया है । इसलिये जैनधर्म का तन्त्रमार्ग सबसे सात्त्विक, नैष्ठिक और सफल है । निर्दोष लक्ष्य, निष्पाप साधना, शुद्ध आशय एवं श्रेष्ठ चारित्र की धरोहर पर ही जैन श्रमणों ने शक्ति की उपासना की है। वस्तुतः सभी प्रकार के तन्त्रप्रयोग का मूल उत्पत्ति स्थान विद्यानुप्रवाद पूर्व है । जो द्वादशांगी के अन्तर्गत है । श्रीतीर्थंकर भगवंतो के मुखकमल से प्रसृता वाणी मन्त्रबीजात्मिका है । शाश्वत नमस्कार महामन्त्र एक स्वयं सिद्ध महामन्त्र है । आगमो में ४८ लब्धि और हजारों विद्याओं का उल्लेख है । आत्मा के वीर्य और क्षयोपशम से स्वयंभू प्रगट होने वाली शक्ति 'लब्धि' है । प्रयत्नसाध्य सिद्धि को विद्या कहते है । मन्त्र और विद्या के बीच की यह भेदरेखा जैन तन्त्र में ही प्रचलित है । जिसका अधिष्ठाता पुरुषदेव ही वह मन्त्र कहा जाता है । स्त्रीदेव अधिष्ठात्री हो उसकी 'विद्या' संज्ञा है । तन्त्रप्रयोग में मुख्यता 'देव' की है । देव के स्वरूप के विषय में जैन धर्म की विशिष्ट तत्त्वप्रणाली है। पाँच प्रकार के देव है । तीर्थंकर-वैमानिक-ज्योतिष्क-व्यंतरभवनपति । तीर्थंकर देव लोकोत्तर है । उनकी उपासना मुक्ति के आशय से होती है । सकाम साधक को उनसे कोइ सहाय प्राप्त नहीं होती । क्योंकि वे स्वयं वीतरागी है । मनुष्यो की आकांक्षा पूर्ति वैमानिकादि चार प्रकार के देव से ही हो सकती है । वैमानिक देव पूर्व के पुण्य-स्नेह-मित्रता आदि 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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