Book Title: Tripurabharatistav
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 10
________________ से जिस जीवात्मा को 'मन्त्र' पद प्राप्त है वे भी 'शिव' स्वरूप है । मन्त्र जीव, कर्म और शरीर से मुक्त होते है । उनकी सङ्ख्या सात कोटि है । और इतर जीव पर अनुग्रह करते है । . पाशमुक्त होने के कारण मुक्तात्मा भी शिवत्व योगी होते है। शिवतत्त्व के वाचक शब्द एवं शिवत्व की प्राप्ति के उपायभूत साधन भी उपचार से शिवत्व योगी होने से 'शिव' है ।। शैव दर्शन में पति पदार्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है । पुरोगामी नाकुलीशपाशुपतदर्शन से शैव दर्शन में 'पति' को अधिक महत्त्व प्राप्त है । नाकुलीश दर्शन अनुसार मुक्तात्मा स्वतन्त्र है। शैव दर्शन में मुक्तात्मा स्वतन्त्र नही अपितु शिव परतन्त्र है ।। मुक्तात्माओं की तरह विद्येश्वरादि पदस्थित आत्माओं को ईशानुग्रह से शिवत्त्व प्राप्त है (जिनकी संख्या आठ है) वे भी परमेश्वर को परतन्त्र ही है। परमेश्वर जगत्कर्ता है और सृजन-पालन-संहार-तिरोभाव और अनुग्रह करण यह पांच उसके कृत्य है । सर्जनादि कृत्य ईश्वर जीवात्मा के कर्म को आधीन रहकर निवर्तन करता है यह शैवदर्शन का मत है । नकुलीश पाशुपत के मतानुसार ईश्वर स्वाधीन रहकर ही सर्जनादि कृत्य करता है । १. मन्त्राश्च कर्मणा शरीरेण च मुक्ताः केवलेन मलेन युक्ताः जीवविशेषा एव । ते य सप्तकोटिसङ्ख्याका इतरजीवानुग्राहकाश्च भवन्ति । २. एवं च शिवशब्देन शिवत्वयोगिनां मन्त्र-मन्त्रेश्वरमहेश्वरमुक्तात्मशिवानां सवाचकानां शिवत्वप्राप्तिसाधनेन दीक्षादिनोपायकलापेन सह पतिपदार्थे सङ्ग्रहः कृतः । ३. मुक्तात्मनां विद्येश्वरादीनां च यद्यपि शिवत्वमस्ति तथापि परमेश्वरपारतन्त्र्यात् स्वातन्त्र्यं नास्ति । टी. ४ पञ्चविधं तत्कृत्यं सृष्टि-स्थिति-संहार-तिरोभावः । तद्वदनुग्रहकरणं प्रोक्तं सततोदितस्यास्य ॥ भोजः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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