Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 7
________________ [6] ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ प्रायश्चित्त के इन दस भेदों में प्रथम के छह प्रायश्चित्त तो सामान्य दोषों की शुद्धि के लिए है। चार प्रायश्चित्त प्रबल दोषों की शुद्धि के लिए है। आगम साहित्य में व्याख्याकारों ने छेदार्थ प्रायश्चित्त में अन्तिम चारों प्रायश्चित्तों में प्रथम प्रायश्चित्त यानी सातवें प्रायश्चित्त के लिए आयुर्वेद का एक रूपक प्रस्तुत किया है। उसमें बतलाया गया कि किसी व्यक्ति का अंग-उपांग रोग या विष से इतना अधिक दूषित हो जाय कि उपचार से उसके स्वस्थ होने की संभावना ही नहीं रहे, तो शल्य चिकित्सा से उस अंग-उपांग का छेदन करना उचित है, पर रोग या विष शरीर में व्याप्त नहीं होने देना चाहिए क्योंकि ऐसा न करने पर अकाल मृत्यु अवश्यंभावी है। किन्तु अंग छेदन से पूर्व वैद्य का कर्तव्य है कि रुग्ण व्यक्ति और उसके निकट सम्बन्धियों को समझाए कि इनके अंग-उपांग रोग से इतने दूषित हो गए हैं कि अब . औषधोपचार से स्वस्थ होना संभव नहीं है। जीवन की सुरक्षा और वेदना से मुक्ति चाहो तो शल्य क्रिया से अंग-उपांग का छेदन करवा लो। यद्यपि शल्य क्रिया से अंग-उपांग का छेदन करते समय तीव्र वेदना तो होगी पर उस थोड़ी देर की वेदना से शेष जीवन उसका सुरक्षित और रोग रहित हो जायेगा। इस प्रकार समझाने पर रुग्ण व्यक्ति और उसके अभिभावक अंग छेदन के लिए सहमत हो जाय तो चिकित्सक का कर्तव्य है कि उस रोगी के अंग का छेदन कर उसके शेष शरीर को व्याधि से मुक्त करे। __ इस रूपक की तरह ही आचार्य दोषसेवी अनगार को समझावे कि आपके द्वारा दोष प्रतिसेवना से आपके उत्तर गुण इतने अधिक दूषित हो गए हैं कि अब उनकी शुद्धि आलोचनादि सामान्य प्रायश्चित्तों से संभव नहीं हैं। अब आप चाहे तो प्रतिसेवनादि काल के दिनों का छेदन कर शेष संयमी जीवन को सुरक्षित किया जाये अन्यथा न समाधिमरण होगा और न ही भवभ्रमण से मुक्ति होगी। इस प्रकार समझाने पर वह अनगार यदि मान जाय तो आचार्य महाराज छेद प्रायश्चित देकर शुद्धि करे। प्रथम के सात प्रायश्चित्त वेष युक्त साधक को उत्तर गुणों में लगे दोषों की शुद्धि के लिए दिए जाते हैं जबकि मूल गुणों में लगे दोषों की शुद्धि के मूलादि तीन अन्तिम प्रायश्चित्तों से होती है। साधक का साधना जीवन सरल, छल कपट रहित होना चाहिए। उसका जीवन खुली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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