Book Title: Tilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan Author(s): Pushpa Gupta Publisher: Publication Scheme View full book textPage 8
________________ प्राक्कथन प्रस्तुत पुस्तक 'तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन' मेरे शोध-प्रबन्ध धनपाल विरचित तिलकमंजरी का आलोचनात्मक अध्ययन पर प्राधारित है, जो सन् 1977 में जोधपुर विश्वविद्यालय द्वारा पी. एच. डी. उपाधि हेतु स्वीकृत किया गया था। तिलकमंजरी संस्कृत गद्य-विद्या में लिखी गई एक अत्यधिक मनोरंजक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध कथा है । सांस्कृतिक दृष्टि से इसका महत्व इसलिए और भी अधिक बढ़ गया है क्योंकि यह जैन धर्म एवं संस्कृति की पृष्ठ भूमि पर आधारित है। तिलकमंजरी पर कुछ शोध-कार्य पहले भी हुआ है लेकिन इसकी सांस्कृतिक समृद्धि पर आलोचकों ने समग्र ध्यान नहीं दिया। इसी प्रभाव को दृष्टिगत रखते हुए मेरे मन में प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन का विचार स्फुरित हुआ जिसकी क्रियान्वति के फलस्वरूप यह पुस्तक प्रकाश में आयी। इसके लेखन में यद्यपि मैंने ग्रन्थकार के जीवन, पांडित्य, कथा का साहित्यिक मूल्यांकन प्रादि विषयों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है तथापि मेरा प्रमुख प्रयास यही रहा है कि पाठकों और शोधकर्ताओं को दशम-एकादश शती की संस्कृति के परिचायक, इस प्रतिनिधि ग्रन्थ का पूर्ण विवरण प्राप्त हो सके । तत्कालीन राजाओं एवं जनसाधारण के मनोरंजन के साधन, वस्त्र एवं वेशभूषा, आभूषण, प्रसाधन सामग्री, केश-विन्यास आदि पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए समकालीन अन्य ग्रन्थों के उद्धरणों से भी तुलनात्मक अध्ययन आधुनिक वैज्ञानिक शोध-पद्धति के आधार पर किया गया है। तिलकमंजरी कथा के ग्रन्थकार गद्य कवि धनपाल दशम तथा एकादश शती के विद्वान् कवि हैं, जिनकी ख्याति इस एक ग्रन्थ से ही पूरे देश में फैल गई थी। धनपाल ने सीयक, सिन्धुराज, मुञ्ज एवं भोजराज जैसे यशस्वी एवं पराक्रमी परमार राजाओं का आश्रय प्राप्त कर 'सरस्वती' विरुद पाया था। अतः उनके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शन हेतु उसने तिलकमंजरी की प्रस्तावना में 12 पद्य प्रशस्ति स्वरूप रचे हैं। महाकविनय दण्डी, सुबन्धु एवं बाणभट्ट ने गद्य-साहित्य की जो अलोकिक ज्योति प्रज्वलित की थी, अनेक दशकों तक उसे पुनर्दीप्त करने का साहस परवर्ती कवियों को नहीं हुआ किंतु धनपाल ने वाणभट्ट को अपना आदर्श मानते हुए तिलकमंजरी की रचना से गद्य श्री को पुनः समृद्ध किया । उन्होने यह रचनाPage Navigation
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