Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 22
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी पम्परा : ९ दिगम्बर टीकायें इस सम्बन्ध में मौन साधे हुए हैं। इस रहस्य का कारण क्या है ? क्या उमास्वाति के तत्त्वार्थसत्र का आधार कुन्दकुन्द के ग्रन्थ हैं___ डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने तत्त्वार्थ के आधार के रूप में मुख्यतया षड्खण्डागम, कसायपाहड एवं कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की चर्चा की है', अन्य दिगम्बर विद्वान् भी इसो मत की पुष्टि करते हैं। इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो यह विचार करना होगा कि क्या तत्त्वार्थसूत्र की रचना कसायपाहुड, षट्खण्डागम एवं कुन्दकुन्द के पश्चात् हई । यह सत्य है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में अनेक समानतायें परिलक्षित होती हैं, किन्तु मात्र इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि उमास्वाति ने ही इन्हें कुन्दकुन्द से ग्रहण किया है । सम्भावना यह भी हो सकती है कि कुन्दकुन्द ने ही उमास्वाति से इन्हें लिया हो। हमें तो यह देखना होगा कि उनमें से कौन पूर्व में हुए और कौन पश्चात् । जहाँ तक दिगम्बर पट्टावलियों का प्रश्न है उनमें से कुछ में उमास्वाति को कुन्दकुन्द का साक्षात् शिष्य और कुछ में परम्परा शिष्य बताया गया है, किन्तु ये सभी पट्टावलियाँ पर्याप्त परवर्ती लगभग १०वीं शती के बाद की हैं अतः प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। स्वयं पं० नाथूराम जी प्रेमी जैसे निष्पक्ष दिगम्बर विद्वानों ने भी उन्हें प्रामाणिक नहीं माना है। मर्कराभिलेख जिसको आधार बनाकर विद्वानों ने कुन्दकुन्द को १-३ शताब्दी के मध्य रखने का प्रयास किया था, अब अप्रमाणिक (जाली) सिद्ध हो चुका है। अब ९वीं शताब्दी से पूर्व का कोई भी ऐसा अभिलेख यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्याबाधं सौख्यं, प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥६।। तत्त्वार्थभाष्य पीठिका कारिका २६-३१ । १. देखें-तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, नेमीचन्द्र शास्त्री (अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद्) भाग २ पृ० १५९-१६२ । २. (अ) जैन साहित्य और इतिहास पर विशदप्रकाश (पं० जुगलकिशोर मुख्तार) पृ० १२५ । (ब) जैन साहित्य का इतिहास भाग २ (पं० कलाशचन्दजी) पृ० २४९ । ३. जैन साहित्य और इतिहास (पं० नाथूरामजी प्रेमी) पृ० ५३०-५३१ । ४. Aspects of Jainology Vol. III Pt. Dalsukhbai Malvanta Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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