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९४ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा तो न तो यह महत्त्वपूर्ण ही प्रतीत होता है और न सैद्धान्तिक ही । तत्त्वार्थ से ज्ञाताधर्मकथा या आवश्यक नियुक्ति में जो अधिक बातें हैं वे हैं-सिद्ध भक्ति, स्थविर-भक्ति, तपस्वी-वात्सल्य अपूर्वज्ञानग्रहण तथा क्षणलव समाधि । जबकि तत्त्वार्थ में उल्लिखित आचार्य भक्ति इनमें नहीं है । फिर भी ये सभी बातें ऐसी हैं जिनसे न श्वेताम्बरों को और न दिगम्बरों को विरोध हो सकता है। क्या दिगम्बरों को सिद्धभक्ति, स्थविरभक्ति, तपस्वी वात्सल्य और अपूर्व ज्ञान ग्रहण से कोई आपत्ति है ? यदि भेद की ही बात करनी हो तो फिर तत्त्वार्थस्त्र और षट्खण्डागम भी एक परम्परा के नहीं हो सकते क्यों कि दोनों में भी एक नाम को भिन्नता है और वह भिन्न नाम क्षणलव प्रतिबोधनता श्वेताम्बर आगमों के अनुरूप है । पुनः विकसित कर्मसिद्धान्त और गुणस्थानसिद्धान्त से युक्त षट्खण्डागम तो तत्त्वार्थसूत्र से पर्याप्त परवर्ती है। षट्खण्डागम मूलतः यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है और तत्त्वार्थसूत्र तो श्वेताम्बर और यापनीयों के विभाजन के पूर्व का ग्रन्थ है। पुनः तीर्थंकर नामकर्म बन्ध के बीस कारण हैं यह अवधारणा आगम काल में नहीं, नियुक्ति काल में स्थिर हुई है और वहीं से ज्ञाताधर्मकथा में डाली गई है।
(७) दिगम्बर विद्वानों ने 'तत्त्वार्थसत्र श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं है-इसे सिद्ध करने के लिए एक तर्क यह भी दिया है कि तत्त्वार्थसूत्र में श्रावक के गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का जो निरूपण है, उसकी श्वेताम्बर आगमों के साथ संगति नहीं है। साथ ही यह भी दिखाया है कि इस असंगति का उल्लेख स्वयं श्वेताम्बर टीकाकार सिद्धसेन गणि ने किया है और उसके परिहार का भी प्रयास किया है। पं० जुगलकिशोर मुख्तार के द्वारा इस असंगति को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है-उसे हम अविकल रूप से नोचे दे रहे हैं। वे लिखते हैं कि
"सातवें अध्याय का १६वां सूत्र इस प्रकार है :
"दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ।"
इस सूत्र में तीन गुणवतों और चार शिक्षाव्रतों के भेद वाले सात उत्तरव्रतों का निर्देश है, जिन्हें शीलव्रत भी कहते हैं । गुणवतों का निर्देश पहले और शिक्षाव्रतों का निर्देश बाद में होता है, इस दृष्टि से इस सत्र में प्रथम निर्दिष्ट हुए दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरतिव्रत ये तीन गुणवत हैं; शेष सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथि
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