Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 151
________________ १३६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा वारणगण, वारणावर्त से सम्बन्धित था, कोटिकगण कोटिवर्ष से संबंधित था, यद्यपि कुछ गण व्यक्तियों से भी सबन्धित थे। शाखाओं में कौशम्बिया, कोडम्बानी, चन्द्रनागरी, माध्यमिका, सौराष्ट्रिका, उच्चैनगिर आदि शाखाएँ मुख्यतया नगरों से सम्बन्धित रही हैं। उच्चै गर शाखा का उत्पत्ति स्थल ऊँचेहरा (म० प्र०) यहाँ हम उच्चैनांगर शाखा के सन्दर्भ में ही चर्चा करेंगे । विचारणीय प्रश्न यह है कि वह उच्चैर्नगर कहाँ स्थित था, जिससे यह शाखा निकली थी। मुनि श्री कल्याणविजय जी और होरालाल कापड़िया ने कनिंघम को आधार बनाते हुए, इस उच्चै गर शाखा का सम्बन्ध वर्तमान बुलन्दशहर पूर्वनाम वरण से जोड़ने का प्रयत्न किया है। पं० सुखलाल जी ने भी तत्त्वार्थ को भूमिका में इसी का अनुसरण किया है। कनिंघम लिखते हैं कि “वरण या बारण यह नाम हिन्दू इतिहास में अज्ञात है। 'बरण' के चार सिक्के बुलन्दशहर से प्राप्त हुए हैं। मुसलमान लेखकों ने इसे बरण कहा है । मैं समझता हूँ कि यह वही जगह होगी और इसका नामकरण राजा अहिबरण के नाम के आधार पर हुआ होगा जो कि तोमर वंश से सम्बन्धित था और जिसने यह किला बहुत पुराना है और एक ऊंचे टीले पर बना हुआ है जिसके आधार पर हिन्दुओं द्वारा यह ऊँचा गाँव या ऊँचा नगर कहा गया है और मुसलमानों ने उसे बुलन्दशहर कहा है।' यद्यपि कनिंघम ने कहीं भी इसका सम्बन्ध उच्चै गर शाखा से नहीं बताया, किन्तु उनके द्वारा बुलन्दशहर का ऊँचानगर के रूप में उल्लेख होने से मुनि कल्याणविजय जो और कापड़िया जी ने तथा बाद में पं० सुखलाल जी ने उच्चै गर शाखा को बुलन्दशहर से जोड़ने का प्रयास किया। प्रो० कापड़िया ने यद्यपि अपना कोई स्पष्ट अभिमत नहीं दिया है । वे लिखते हैं "इस शाखा का नामकरण किसी नगर के आधार पर हो हुआ होगा, किन्तु इसकी पहचान अपेक्षाकृत कठिन है, क्योंकि बहुत सारे ऐसे ग्राम और शहर हैं जिनके अन्त में 'नगर' नाम पाया जाता है। वे आगे भी लिखत ह कि कनिघम का विश्वास है कि यह ऊँचानगर से सम्बन्धित होगी।" कि कनिघम ने आकियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया के १४वें खण्ड मे बुलन्दशहर का समीकरण ऊँचा नगर से किया था। इसी 1. Archaeological Survey of India. Vol/. 14, P, 47 २. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (द्वितीय विभाग) प्रस्तावना, हीरालाल कापड़िया, पृ०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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