Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 159
________________ १४६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा पर उसे अपनी परम्परानुसार नया रूप देते, तो फिर मूल एवं भाष्य में जिन मूल भेदों की चर्चा वे करते हैं, वह सम्भव ही नहीं होती, अतः पाठ संशोधन न तो दिगम्बरों ने किया है और न श्वेताम्बरों ने। उसका उत्तरदायित्व तो यापनीय आचार्यों पर जाता है। ८. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की स्वोपज्ञता भी एक विवाद का विषय रही है। इस सन्दर्भ में समस्त विवेचना से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भाष्य की स्वोपज्ञता निर्विवाद है। भाष्य तत्त्वार्थसूत्र की अन्य टीकाओं की अपेक्षा अविकसित है उसमें गुणस्थान, स्याद्वाद, सप्तभंगी जैसे विषयों का स्पष्ट अभाव है। पं० नाथूरामजो प्रेमी आदि कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी उसकी स्वोपज्ञता स्वीकार किया है, अतः भाष्य की स्वोपज्ञता निर्विवाद है। ९. भाष्य में जो वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेख है, वे वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा के पोषक न होकर उस स्थिति के सूचक है, जो ई० सन की दूसरी-तीसरी शती में उत्तरभारत के निर्ग्रन्थ संघ की थी और जिनका अंकन मथुरा की मुनि प्रतिमाओं में भी हुआ है। मथुरा के इस काल के अंकनो में मुनि नग्न है, किन्तु उसके हाथ में कम्बल और मुखवस्त्रिका है। कुछ मुनि नग्न होकर भी पात्र युक्त झोली हाथ में लिए हुए हैं, तो कुछ झोली रहित मात्र पात्र लिए हुए हैं। यह सब उस संक्रमण काल का सूचक है जिसके कारण विवाद हुआ और फलतः श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा (उत्तरभारत को अचेल धारा) का विकास हुआ। भाष्य में मुनि वस्त्र के लिए चीवर शब्द का प्रयोग हुआ। कल्पसूत्र में भी महावीर जिस एक वस्त्र को लेकर दोक्षित हुए और एक वर्ष और एक माह पश्चात् जिसका परित्याग कर दिया था-उसे चीवर कहा गया है। जिस प्रकार महावीर लगभग एक वर्ष तक एक वस्त्र को रखते हुए भी नग्न रहे। यही स्थिति उमास्वाति के काल के सचेल निर्ग्रन्थ श्रमणों की है-वे सचेल होकर भी नग्न है। पाली त्रिपिटिक में निर्ग्रन्थों को जो एक शाटक कहा गया है, वह स्थिति भी तत्त्वार्थ भाष्य के काल तक उत्तर भारत में यथावत चल रही जी। मथुरा में एक ओर वस्त्र धारण किये एक भी मुनि प्रतिमा नहीं मिली, तो दूसरी और पूर्णतः निर्वस्त्र प्रतिमा भी नहीं मिली है । क्योंकि उनके गण, कुल, शाखायें श्वेताम्बर मान्य कल्पसूत्र के अनुसार है। अतः वे श्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैं, इसमें भी सन्देह नहीं रह जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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