Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 150
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसको परम्परा : १३५ मान्यताओं के निर्धारण के पूर्व के आचार्य हैं। वे उस संक्रमण काल में हुए हैं, जब श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय संप्रदाय और उनकी साम्प्रदायिक मान्यताएँ और स्थिर हो रही थी। वे उस अर्थ में श्वेताम्बर या दिगम्बर नहीं है, जिस अर्थ में आज हम इन शब्दों का अर्थ लेते हैं । वे यापनीय भी नहीं है, क्योंकि यापनीय सम्प्रदाय का सर्वप्रथम अभिलेखीय प्रमाण भी विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध और ईसा की पांचवीं शतो के उत्तरार्ध ( ई० सन् ४७५ ) का मिलता है । अतः वे श्वेताम्बर और यापनीयों को पूर्वज उत्तर भारत को निर्ग्रन्थ धारा की कोटिकगण को उच्चनागरी शाखा में हुए हैं। उनके संबंध में इतना मानना हो पर्याप्त है। उन्हें श्वेताम्वर, दिगंबर या यापनीय सम्प्रदाय से जोड़ना उचित नहीं है। उमास्वाति का जन्म-स्थल एवं कार्यक्षेत्र तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-भाष्य को अन्तिम प्रशस्ति में अपने को उच्चैनांगर शाखा का कहा है तथा अपना जन्म-स्थान न्यग्रोधिका वताया है। अतः उच्चैर्नागर शाखा के उत्पत्ति-स्थल एवं उमास्वाति के जन्म-स्थल का अभिज्ञान ( पहचान ) करना आवश्यक है। उच्चै गर शाखा का उल्लेख न केवल तत्त्वार्थ-भाष्य' में उपलब्ध होता है, अपितु श्वेताम्वर परम्परा में मान्य कल्पसूत्र की स्थविरावलोरे में तथा मथुरा के अभिलेखों में भी उपलब्ध होता है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार उच्चैर्नागर शाखा कोटिकगण की एक शाखा थी। मथुरा के २० अभिलेखों में कोटिकगण तथा नौ अभिलेखों में उच्चै गर शाखा का उल्लेख मिलता है । कोटिकगण कोटिवर्ष के निवासी आर्य सुस्थित से निकला था । कोटिवर्ष को पहचान पुरातत्त्वविदों ने उत्तर बंगाल के फरीदपुर से की है। इसी कोटिकगण के आर्य शान्ति श्रेणिक से उच्चै - गर शाखा के निकलने का उल्लेख है। कल्पसूत्र के गण, कुल और शाखाओं का सम्बन्ध व्यक्तियों या स्थानो ( नगरों) से रहा है जैसे१. तत्त्वार्थभाष्य अन्तिम-प्रशस्ति, श्लोक सं० ३, ५ २. कल्पसूत्र, स्थविराली २१८ ३. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२ लेखक्रमांक, १०, २०, २२, २३, ३१, ३५, ३६, ५०, ६४, ७१ ४. कल्पसूत्र स्थविरावली, २१६ ५. ऐतिहासिक स्थानावली (ले० विजयेन्द्र कुमार माथुर ) पृ० सं० २३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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