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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : १०३ पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार' ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर आगमिक परम्परा से भिन्नता सिद्ध करते हुए यह भी बताया है कि "तत्वार्थभाष्य में नामकर्म की प्रकृतियों की चर्चा करते हुए पाँच पर्याप्तियों का उल्लेख हुआ है। यथा-पर्याप्तिः पंचविधा तद्यथा-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोश्वासपर्याप्ति और भाषापर्याप्ति । यह सुस्पष्ट है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में छह पर्याप्तियाँ मानी जाती हैं, जबकि भाष्य में पाँच पर्याप्तियों का उल्लेख है अतः भाष्य का उक्त कथन श्वेताम्बर आगम के अनुकूल नहीं है।" सिद्धसेनगणि ने तत्वार्थभाष्य की टीका में इस असंगति को उठाया है, वे लिखते हैं कि परमआर्षवचन में अर्थात् आगम में तो षट् पर्याप्तियाँ प्रसिद्ध हैं। फिर यह पर्याप्तियों की पाँच संख्या कैसी? इस शंका का निवारण करते हुए उन्होंने स्वयं यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इन्द्रिय "पर्याप्ति में मनः पर्याप्ति का ग्रहण समझ लेना चाहिए, वस्तुतः पाँच और
छः पर्याप्तियों का यह प्रश्न सैद्धान्तिक नहीं। आगमों में एक तथ्य को अनेक अपेक्षाओं से अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया जाता है। जैसे संज्ञा का वर्गीकरण चार संज्ञा के रूप में भी मिलता है और दस संज्ञा के रूप में भी । यदि हम व्यापक दष्टि से विचार करें तो मन भी इन्द्रिय वर्ग से भिन्न नहीं है, उसे नो-इन्द्रिय कहा गया है। अतः भाष्य में मन:पर्याप्ति का अलग से उल्लेख नहीं होने का अर्थ यह नहीं है कि कोई आगम से भिन्न मत प्रस्तुत कर रहा है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि तत्त्वार्थ मल और उसके भाष्य दोनों की शैली सूत्र शैली है और सूत्र शैली में अनावश्यक विस्तार से बचना होता है। पुनः प्राचीन परम्परा में मन का ग्रहण इन्द्रिय के अन्तर्गत होता था । अन्य दर्शनों में मन को इन्द्रिय माना हो गया है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य को रचना पर अन्य परम्परा के सूत्र ग्रन्थों का स्पष्ट प्रभाव है। सम्भवतः उमास्वाति ने अन्य परम्पराओं के प्रभाव और संक्षिप्तता की दृष्टि से १. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार,
पृ० १४२ २. पर्याप्तिः पंचविधा । तद्यथा-आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः
प्राणापानपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिरिति ।" -तत्त्वार्थभाष्य ८/१२ ३. "ननु च षट् पर्याप्तयः परमार्षवचनप्रसिद्धाः कथं पंचसंख्याका ? इति ।" ४. "इन्द्रियपर्याप्तिग्रहणादिह मनःपर्याप्तेरपि ग्रहणमक्सेयम् ।"
-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य टीका ८१२ (भाग २, पृ० १५९.१६०)
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