Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 147
________________ १३२ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा तीसरी-चौथी शताब्दी के समवायांग जैसे श्वेताम्बर मान्य आगों और यापनीय परम्परा के कसायपाहड एवं षटखण्डागम जैसे ग्रन्थों से तत्त्वार्थसूत्र की कुछ निकटता और कुछ विरोध यही सिद्ध करता है कि उसकी रचना इनके पूर्व हुई है। तत्त्वार्थभाष्य की प्रशस्ति तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के काल का निर्णय करने का आज एकमात्र महत्त्वपूर्ण साधन है । उस प्रशस्ति के अनुसार तत्त्वार्थ के कर्ता उच्च गर शाखा में हुए । उच्चै गर शाखा का उच्चनागरी शाखा के रूप में कल्पसूत्र में उल्लेख है। उसमें यह भी उल्लेख है कि यह शाखा आर्य शान्तिश्रेणिक से प्रारम्भ हुई। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार शान्तिश्रेणिक आर्यवज्र के गुरु सिंहगिरि के गुरुभ्राता थे। श्वे० पट्टावलियों में आर्यवज्र का स्वर्गवास काल वीर निर्वाण सं० ५८४ माना जाता है, यद्यपि मैं इससे सहमत नहीं हैं। अतः आर्यशान्ति श्रेणिक का जीवन काल वीर निर्वाण ४७० से ५५० के बीच मानना होगा। फलतः आर्यशान्तिश्रेणिक से उच्च नागरी की उत्पत्ति विक्रम की प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध और द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध में किसी समय हुई । इसकी संगति मथुरा के अभिलेखों से भी होती है उच्चै गर शाखा का प्रथम अभिलेख शक सं० ५ अर्थात् विक्रम संवत् १४० का है, अतः उमास्वाति का काल विक्रम की द्वितीय शताब्दी के पश्चात ही होगा। उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में उन्हें उच्चै गर शाखा का बताया गया गया है। इस शाखा के नौ अभिलेख हमें मथुरा से उपलब्ध होते हैं। जिन पर कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव का उल्लेख भी है। यदि इनपर अंकित सम्वत् शक संवत् हो तो यह काल शक सं० ५ से ८७ के बीच आता है, इतिहासकारों के अनुसार कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव ई० सन् ७८ से १७६ के बीच हुए हैं। विक्रम संवत् को दृष्टि से उनका यह काल सं० १३५ से २३३ के बीच आता है अर्थात् विक्रम संवत् की द्वितीय शताब्दी का उत्तरार्ध और तृतीय शताब्दी का पूर्वार्ध । अभिलेखों के काल की संगति आर्य शान्ति श्रेणिक और उनसे उत्पन्न उच्च नागरी शाखा के १. थेरेहितो णं अज्जसंतिसेणिए हितो णं माठरसगोत्तेहितो एत्य उच्चनागरी साहानिग्गया । कल्पसूत्रं (कल्पसुत्तं), २१८, प्राकृत भारती जयपुर । २. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ लेख क्रमांक १९, २०, २२, २३, ३१, ३५, ३६, ५०, ६४; उच्चै गर शाखा का प्रथम लेख कनिष्क वर्ष ५ का अन्तिम लेख हुविष्क वासुदेव वर्ष ८७ का है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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