Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 127
________________ - ११२ : तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा मान काल के वज्रभीरू आचार्यों को तो दोनों का ही संग्रह करना चाहिए । ' यह बात स्पष्ट रूप से इस तथ्य की सूचक हैं कि जैनधर्म और दर्शन संबंधी " कितने ही प्रश्नों पर दूसरी-तीसरी शताब्दी में आचार्यों में मतभेद था । यदि कसा पाहुड और षट्खण्डागम में मतभेद के होते हुए भी वे एक ही परम्परा के ग्रन्थ माने जा सकते हैं तो फिर किंचित् मतभेदों की उपस्थिति में उमास्वाति को आगमिक परम्परा का मानने में क्या आपत्ति है ? या तो दिगम्बर विद्वान् यह स्वीकार करें कि षट्खण्डागम और कसायपाहुड - दो भिन्न-भिन्न परम्पराओं के ग्रन्थ हैं या फिर यह मानें कि उमास्वाति भी मतभेदों के बावजूद उसी उत्तर भारत की आगमिक निर्ग्रन्थ परम्परा के आचार्य हैं, जिनसे श्वेताम्बरों और यापनियों का विकास हुआ है और जो स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यतैथिक मुक्ति, केवलीभुक्ति आदि की समर्थक रही । यदि यह तर्क दिया जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र का श्वेताम्बर -मान्य आगमों से विरोध है, अतः वह श्वेताम्बर नहीं है, तो इसी प्रकार -का दूसरा तर्क होगा, चूंकि तत्त्वार्थसूत्र का दिगम्बर परम्परा की मान्यता से विरोध है, अतः वह दिगम्बर भी नहीं है । श्वेताम्बर और दिगम्बर नहीं होने पर क्या वह यापनीय है ? किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के रचना काल तक यापनीय उत्पन्न ही नहीं हुए थे अतः उसे यापनीय भी नहीं कहा जा सकता है - वस्तुतः वह उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा की उच्च नागरी शाखा और वाचक वंश का ग्रन्थ है जो श्वेताम्बर और यापनीय दोनों का पूर्वज है । फिर भी इस बात को भी समीक्षा तो कर ही लेनी होगी कि क्या तत्त्वार्थ सूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों से भिन्न तीसरी यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है ? क्या तत्त्वार्थ यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है ? उमास्वाति एवं उनके तत्त्वार्थसूत्र के सम्प्रदाय के प्रश्न को लेकर नाथूराम जी प्रेमी ने भी विस्तृत चर्चा की है । उन्होंने ही सर्वप्रथम उनके यापनीय सम्प्रदाय का होने को सम्भावना प्रकट की है । यहाँ हम उन्हीं १. देखे - ( अ ) षट्खण्डागम १ / २ / २७ को धवलाटीका षट्खण्डागम (धवलाटीका समन्वित) पुस्तक १, पृ० २२२-२२३ (ब) षट्खण्डामम परिशीलन - पं० बालचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ पृ० ७१० २. जैनसाहित्य और इतिहास -पं० नाथूरामजी प्रेमी, पू० ५२२-५४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162