Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 128
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसको परम्परा : ११३ के तर्कों की समीक्षा के आधार पर यह निश्चित करने का प्रयास करेंगे कि क्या उमास्वाति वस्तुतः यापनीय परम्परा के थे ? आदरणीय प्रेमी जी ने उमास्वाति के यापनोय होने की सम्भावना के सन्दर्भ में सर्वप्रथम यह तर्क दिया कि 'श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में जो प्राचीन पट्टावलियाँ हैं, उनमें कहीं उमास्वाति का उल्लेख नहीं है। वे लिखते हैं कि "दिगम्बर सम्प्रदाय की जो सबसे प्राचीन आचार्य परंपरा मिलती है वह वीर निर्वाण संवत् ६८३ अर्थात् विक्रम संवत् २१३ तक की है। यह तिलोयपण्णत्ति, महापुराण, हरिवंशपुराण, जंबुद्दोवपण्णत्ति, श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में यह लगभग एक सी है। परन्तु इस परम्परा में उमास्वाति या उनके किसी गुरु का नाम नहीं है। ___आदिपुराण और हरिवंशपुराण जो विक्रम की नवीं शताब्दो के ग्रन्थ हैं। इनमें प्रायः सभी प्रसिद्ध ग्रन्थकर्ताओं का स्तुतिपरक स्मरण किया गया है, परन्तु उनमें भी उमास्वाति स्मरण नहीं किये गये और यह असम्भव मालूम होता है कि उमास्वाति जैसे युगप्रवर्तक ग्रन्थकर्ता को वे भूल जाते। आदिपुराण के कर्ता तो उनके साहित्य से भी परिचित थे। क्योंकि उनके गुरु वीरसेन ने अपनी धवलाटीका में एक जगह गृद्धपिच्छाचार्य या उमास्वाति के तत्त्वार्थ के एक सूत्र को भी उद्धृत किया है और स्वयं उन्होंने भो जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, उमास्वाति के भाष्यान्त के ३२ पद्य और प्रशमरति प्रकरण का भी एक पद्य अपनी जयधवला में उद्धृत किया है, वास्तव में वे उन्हें भिन्न सम्प्रदाय का आचार्य जानते होंगे।" पुनः प्रेमी जी लिखते हैं कि "दिगम्बर परम्परा में उमास्वाति का उल्लेख करने वाली जो पदावलियाँ और अभिलेख मिलते हैं, वे १२वीं शताब्दी के पूर्व के नहीं हैं। इन पट्टावलियों में नन्दिसंघ की गुर्वावली के अनुसार जिनचन्द्र के शिष्य पद्मनन्दि या कुन्दकुन्द और कुन्दकुन्द के शिष्य उमास्वाति थे। दिगम्बर परम्परा के शक संवत् १०३७ अर्थात् विक्रम संवत् ११७२ (विक्रम की १२वीं शताब्दी) के शिलालेखों में जो पावलियाँ अंकित हैं, उनमें यद्यपि उमास्वाति को दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, किन्तु उनमें कहीं भी एकरूपता नहीं है।"२ इसी सन्दर्भ में प्रेमी जी का निम्न वक्तव्य भी ध्यान देने योग्य है। ___ "गुर्वावली, पट्टावली और शिलालेखों आदि के पूर्वोक्त उल्लेख बतलाते १. जैन साहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम जी प्रेमी, पृ० ५३० २. वही, पृ० ५३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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