Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 131
________________ ११६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसको परम्परा उल्लेख होते हुए भी उनके सन्दर्भ में इतने मत-वैभिन्य हैं कि किसी निष्कर्ष पर पहँचना असम्भव है। पं० नाथूराम जी प्रेमी के साथ हमें भी यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि इन पट्टावलियों के आधार पर उमास्वाति की परम्परा का निर्धारण नहीं किया जा सकता, किन्तु इस आधार पर उनका उमास्वाति को यापनीय मान लेना हमें समचित प्रतीत नहीं होता है। यदि जिनसेन ने हरिवंशपुराण में सभी प्रमुख ग्रन्थकर्ताओं की स्तुति को, तो फिर उन्होंने उमास्वाति को क्यों छोड़ दिया ? क्या मात्र इसीलिए कि वे उनकी परम्परा से भिन्न थे। आश्चर्य तो यह है कि जब जिनसेन अपने से भिन्न परम्परा के सिद्धसेन का उल्लेख कर सकते हैं, तो फिर उमास्वाति का उल्लेख क्यों नहीं कर सकते हैं ? यदि हम कुछ समय के लिए यह भी मान लें कि सिद्धसेन यापनीय थे, जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो यह आश्चर्य और अधिक बढ़ जाता है । यदि प्रेमी जी के अनुसार सिद्धसेन और उमास्वाति दोनों ही यापनीय हैं तो फिर जिनसेन ने एक यापनीय आचार्य का तो उल्लेख किया और दूसरे को क्यों छोड़ दिया ? पुनः हम पूर्व में यह भी सिद्ध कर चुके हैं कि जिनसेन का हरिवंशपुराण भी उसी पुन्नाटसंघ का ग्रन्थ है, जो यापनीयों के 'पुन्नागवृक्षमूलगण' से निकला है। अतः उन्हें अपनी पूर्वज परम्परा के किसी आचार्य का उल्लेख करने में क्या आपत्ति हो सकती थी ? पुनः जब उसमें वीर निर्वाण सं०६८३ के पश्चात् के अपनी परम्परा के आचार्यों को एक लम्बी सूची दी गई है, जिसमें अनेक यापनीय आचार्य भी हैं तो उस सूची में उमास्वाति का नाम क्यों नहीं है? एक संभावना यह व्यक्त की जा सकती है कि जिनसेन उमास्वाति को यापनीय एवं दिगम्बर दोनों न मानकर संभवतः श्वेताम्बर मानते होंगे और इसी कारण उनका उल्लेख नहीं किया होगा, किन्तु उन्होंने श्वेताम्बर होने के कारण उमास्वाति का उल्लेख नहीं किया, यह मानने में भी एक कठिनाई यह है कि जब उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य के रूप में हो सुविख्यात सिद्धसेन का स्मरण किया तो फिर उमास्वाति को क्यों छोड़ दिया? हमारी दृष्टि में जिनसेन के द्वारा उमास्वाति का स्मरण नहीं किये जाने का कारण उनका यापनीय होना नहीं हो सकता है। ___मेरी दृष्टि में वास्तविकता इससे भिन्न है । यह स्पष्ट है कि महावीर के संघ में भद्रबाह के पश्चात् गण, कुल और शाखाओं के भेद प्रारम्भ हए और फिर निर्ग्रन्थ संघ अनेक विभागों और उपविभागों में बँटता हो गया। जो स्थविरावलियाँ और पट्टावलियां हमें उपलब्ध हैं वे सभी परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162