Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 138
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : १२३ मिक व्याख्या साहित्य में आगमों की अनेक वाचनाओं एवं वाचनाभेदों के सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। वलभी वाचना और माथुरी वाचना में भी अन्तर था। भगवतो आराधना की विजयोदया टीका में आगमों के जो उदाहरण उपलब्ध होते हैं वे इस बात के प्रमाण हैं कि उन्हें जो आगम ग्रन्थ या उनके अंश उपलब्ध थे, वे सम्भवतः माथुरी वाचना के रहे हैं। हमें यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि श्वेताम्बर परम्परा में वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं वे वज्रोशाखा के हैं। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता उमास्वाति उच्चनागर शाखा के हैं, अतः यह सम्भव है कि उच्चनागरशाखा और वज्रो शाखा में कुछ मान्यता भेद रहा हो। पं० नाथूरामजी प्रेमी ने जिन मतभेदों को चर्चा की है उनमें से कुछ मान्यताएँ तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्य में उपलब्ध होती है। तिलोयपण्णत्ति अपने मूल स्वरूप में यापनीय परम्परा का ग्रंथ रहा है। यद्यपि बाद में उसे परिवर्तित कर दिया गया। तिलोयपण्णत्ति का आधार भी आगम ही है और इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि उमास्वाति के समक्ष आगम सम्बन्धी विभिन्न वाचनाएँ थीं और उनमें से वे किसी एक का अनुसरण कर रहे थे। ___नारकियों के शरीर की ऊँचाई तथा अन्तर्दीपों की संख्या के सम्बन्ध में भाष्यकार का मत तिलोयपण्णत्ति के समान है। जहाँ तक लोकान्तिक देवों को संख्या का प्रश्न है श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम स्थानांग और भगवतो में आठ और नौ दोनों ही तरह की मान्यताएँ मिलती हैं। अतः सिद्धसेनगणि के द्वारा दिखाये गये इन मतभेदों के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि उमास्वाति उस पूर्वज धारा के नहीं थे, जिससे यापनोय ओर श्वेताम्बर धारायें विकसित हुई हैं। यह स्मरण रखना ही होगा कि उमास्वाति बलभीवाचना (वीर 'नि० संवत् ९८०) के लगभग दो सौ वर्ष पूर्व हुए-अतः यह स्वाभाविक था कि उनके मन्तव्यों का वलभोवाचना के आगमों से आंशिक मतभेद हो। यह भी सम्भव है कि बलभीवाचना के समय मध्य देश में स्थित उच्च नागर शाखा के प्रतिनिधि उपस्थित नहीं रहे हों और उनके मन्तव्यों का संकलन न हो पाया हो। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उमास्वाति के यापनीय होने के लिए एक तर्क यह भी दिया है कि उनके गुरु घोषनन्दो और शिव भी उनके याप- नीय होने का संकेत देते हैं। क्योंकि नन्दयन्त नाम यापनीय परम्परा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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