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तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी परंपरा : १२५
विक्रम संवत् १९९ अर्थात् विक्रम की द्वितीय शताब्दी के अन्त तथा तृतीय शताब्दी के प्रारम्भ में वस्त्र, पात्र को लेकर विवाद हुआ था । तथापि संघभेद नहीं हुआ था, वह तो उनके शिप्य प्रशिष्यों के काल में अर्थात् तीसरी शती के उत्तरार्ध में हुआ।' आदरणीय प्रेमी जी इस मान्यता में कुछ सत्यता हो सकती है कि ये हो आर्य शिवभूति उमास्वाति के प्रगुरु शिवश्री रहे हों, क्योंकि दोनों ही उसी कोटिकगण के हैं । उन्हें प्रगुरु मानने पर उमास्वाति का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के अन्त और चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्ध तक भी माना जा सकता है। इससे यही फलित होता है कि संघ भेद की घटना और उमास्वाति समकालिक ही है यह भी संभव है कि उमास्वाति के गुरुमूल या मूलनन्दी के नाम मूलगण निकला हो, जो दक्षिण में संघ के नाम से जाना गया हो और जैसा कि हम लिख चुके हैं इसी मूलगण / मूलसंघ से यापनीयों का विकास हुआ है । मूलसंघ के अभिलेख भी विक्रम सं० ४२७ ( ई० सन् ३७० ) और विक्रम सं० ४७२ ( ई० सं० ४२५ ) के लगभग के अनुमानित है किन्तु ये भी उमास्वाति के बाद के हैं । अतः यह निश्चित है कि श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय संघ उमास्वाति के कुछ बाद के हैं । यदि बोटिक यापनीयों के पूर्वज हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि उमास्वाति की उच्चनागरी शाखा भी यापनीयों की पूर्वज है । वस्तुतः उमास्वाति उस काल में हुए हैं उत्तर भारत में मान्यता भेद अपनी जड़ें तो जमा रहे थे, किन्तु उनके आधार पर सम्प्रदायों का ध्रुवीकरण नहीं हो पाया था। उनका काल सम्प्रदायगत मान्यताओं एवं स्पष्ट संघभेद के स्थिरीकरण के पूर्व का है ।
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मेरी दृष्टि में उमास्वाति दिगम्बर परम्पा के तो बिल्कुल ही नहीं हैं, वे यापनीय भी नहीं हैं, अपितु उत्तर भारत को उस निर्ग्रन्थ परम्परा में
१. बोडिय सिवभूईओ वोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती ।
कोडिण्ण कोट्वीरा परंपरा फासमुप्पणा ॥
— आवश्यक मूलभाष्य १४८ आवश्यकनियुक्ति हरिभद्रीय वृत्ति उद्धृत पृ० २१५ ।
२. देखे - महावीर का निर्माण-काल- डॉ० सागरमल जैन, श्रमण, अक्टूबर
दिसम्बर ९२ ।
३. देखें - श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुरसंघ : एक विमर्श, डॉ० सागरमल जैन श्रमण - जुलाई-सितम्बर ९२ ।
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