Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 124
________________ 'तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : १०९. है । उत्तराध्ययन ( ३० / २८ ) में विविक्त शय्यासन है - इसे पं० कोठिया जी क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ? आदरणीय डॉ० कोठिया जी ने अपने लेख के अन्त में तत्त्वार्थ को दिगम्बर परम्परा का सिद्ध करने के लिए दो और नवीन प्रमाण दिये हैं, वे हैं - स्त्री परीषह और दंशमशक परीषह । उनका कहना है " तत्त्वार्थ सूत्र ( ९/९) में २२ परीषहों के अन्तर्गत एक स्त्री परीषह है, जिससे प्रकट है कि यह ग्रन्थ उस परम्परा का है, जो मात्र पुरुष की मुक्ति स्वीकार करती है और स्त्री को उसके मोक्ष में बाधक मानती है । वह परम्परा है, दिगम्बर । श्वेताम्बर परम्परा स्त्री और पुरुष दोनों की मुक्ति स्वीकार करती है, अतः उसके अनुसार तो स्त्री परीषह के साथ-साथ पुरुष परीषह भी कहा जाना चाहिए, क्योंकि पुरुष भी स्त्री की मुक्ति में बाधक है, पर तत्त्वार्थ सूत्रकार ने उसे नहीं कहा। उन्होंने मात्र स्त्री परीषह का ही कथन किया है ।" । इसी प्रकार अन्य २२ परोषहों में 'दंशमशक' परीषह परिगणित है । उससे जाना जाता है कि यह ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा का है, क्योंकि उसके साधु पूर्ण दिगम्बर होते हैं और दंशमशक परीषह की बाधा उन्हीं को होती है, श्वेताम्बर सवस्र साधु को नहीं ।" किन्तु हम अत्यन्त विनम्रता से पूछना चाहेंगे कि परीषह को यह व्याख्या उन्होंने कहाँ से निकाल ली कि परीषह वह है, जो मुक्ति में बाधक है | परीषह का अर्थ है, वे कष्ट जो अनायास सहन करने पड़ते हैं । पुनःजो ग्रन्थ इन दो परीषहों का उल्लेख करता हो, वह दिगम्बर परम्परा का होगा, यह कहना भी उचित नहीं है । फिर तो उन्हें सभी श्वेताम्बर आचार्यों एवं उनके ग्रन्थों को दिगम्बर परम्परा का मान लेना होगा, क्योंकि उक्त दोनों परीषहों का उल्लेख तो प्रायः सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने एवं श्वेताम्बर आगमों में किया गया है और किसी श्वेताम्बर ग्रन्थ में भी पुरुष परीषह का उल्लेख नहीं है । पं० कोठिया जी जैसे प्रौढ़ विद्वान् से हम इतने अपरिपक्व तर्क की अपेक्षा नहीं करते हैं । पुनः यह भारतीय संस्कृति का सर्वमान्य तथ्य है कि सारे उपदेश ग्रन्थ एवं नियम ग्रन्थ पुरुष को प्रधान करके ही लिखे गये हैं किन्तु इससे स्त्री की उपेक्षा या अयोग्यता सिद्ध नहीं होती है । समन्तभद्र आदि. दिगम्बर आचार्यों ने 'श्रावकाचार' लिखे हैं तथा चतुर्थ अणुव्रत को १. जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन - डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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