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१०२ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा सागारधर्मामृत' भी आदिपुराण और हरिवंशपुराण का ही अनुसरण करते हैं । इस प्रकार ये सभी कुन्दकुन्द से भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं । रत्नकरण्डश्रावकाचार में यद्यपि अन्य नाम तो उमास्वाति के अनुसार ही पाये जाते हैं। किन्तु अतिथिसंविभाग के स्थान पर वैयावृत्य का उल्लेख है। यहाँ भी जो गुणवतों और शिक्षाव्रतों का विभाजन है तथा जो क्रम है, वह भगवतीआराधना उपासकदशा एवं औपपातिक से भिन्न है । इस प्रकार हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में श्रावक के द्वादश व्रतों के नाम और क्रम को लेकर एक नहीं, तीन परम्परा पायी जाती है और पुनः ये तोनों परम्परायें भी पूर्णतः तत्त्वार्थ का अनुसरण नहीं करती हैं । कहीं नाम का तो कहीं क्रम का अन्तर है।
जब नामों में समानता होते हुए भी मात्र क्रमभंग के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर आगमों से असंगत माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर परम्परा का ग्रंथ नहीं है तो फिर दिगम्बर परम्परा के श्रावक व्रतों के वर्गीकरण की उपलब्ध तीनों परम्पराओं से कहीं नाम और कहीं क्रम की दृष्टि से भेद होते हए भी तत्त्वार्थसूत्र उस परम्परा का कैसे माना जा सकता है ? दूसरों की असंगतियों को उजागर करके अपनी असंगतियों को न देखना कहाँ का न्याय है ? क्रम भेद के जिस तर्क के आधार पर तत्त्वार्थ श्वेताम्बर परम्परा का नहीं माना जा सकता, उसी तर्क के आधार पर वह दिगम्बर परम्परा का भी सिद्ध नहीं होता है।
संविभाग को तृतीय और देशावकाशिक को सबसे अन्त में चतुर्थ स्थान
दिया गया है। १. देखें-सागारधर्मामृत ५/१-२३ तथा ५/२४-५५
ज्ञातव्य है कि पं० आशाधरजी के श्रावक व्रत विवेचन में उमास्वाति के स्थान पर श्वेताम्बरमान्य औपपातिक सूत्र का अनुसरण देखा जाता है फिर भी आन्तरिक क्रम में भिन्नता है। इसमें अनर्थदण्ड को दूसरा गुणव्रत और भोगोपभोग परिमाण को तीसरा गुणव्रत कहा गया है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में अनर्थदण्ड को तीसरा और भोगोपभोग परिमाण को दूसरा गुणव्रत माना गया है। शिक्षाव्रतों में भी इसमें देशावकाशिक को प्रथम स्थान दिया गया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में सामायिक को प्रथम स्थान दिया गया है। २. देखें-रत्नकरण्ड श्रावकाचार (समन्तभद्र) ५१-१२१ ३. भगवती आराधना (सं० पं० कैलाशचन्दजी, जैन संस्कृति रक्षक संघ शोला
पुर) २०७३-२०७५
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