Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 47
________________ ३४ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा ___ यहाँ हमें यह स्मरण रखना होगा कि तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य में उमास्वाति ने अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं किया है-मात्र उन्होंने जैन परम्परा में काल को स्वतंत्र द्रव्य की मान्यता को लेकर जो मतभेद था, उसका 'कालश्चेके' सूत्र में भी संकेत किया है। काल स्वतंत्र द्रव्य है या नहीं यह चर्चा प्राचीनकाल से ही जैन परम्परा में प्रचलित रही है। पार्श्व और उनकी परम्परा मात्र पंचास्तिकाय को हो मानते थे,' काल को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानते थे, वे काल को जीव और अजीव की पर्याय ही मानते थे। किन्तु महावीर को परम्परा में काल को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में मान्यता मिल चुकी थी। स्वयं उत्तराध्ययन में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानकर उसके लक्षण की चर्चा है। यदि आगमों में ही दोनों प्रकार के दष्टिकोण थे, तो आगमों के आधार पर निर्मित ग्रंथ में उसका संकेत करना आवश्यक था। पुनः तत्त्वार्थ की रचना का उद्देश्य समग्र जैन दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थ की रचना करना था, ताकि न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र और मीमांसासूत्र की तरह जैन दर्शन का भी कोई प्रतिनिधि सूत्र ग्रन्थ हो। जब कि प्रशमरति उनकी अपनी स्वतः रचना थी। अतः तत्त्वार्थ में उस तटस्थता का परिचय देना आवश्यक था, जब कि प्रशमरति में आवश्यक नहीं था। तत्त्वार्थ और उसके भाष्य में वे सम्पूर्ण जैन दर्शन की ओर से कोई बात कह रहे हैं, जबकि प्रशमरति में अपनी परम्परा की बात कर रहे हैं। आज भी कोई विद्वान् जब समन जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में कोई बात कहता है तो उसकी प्रस्तुतीकरण की शैली भिन्न होती है और जब अपनी साम्प्रदायिक मान्यता की बात करता है तो उसकी शैलो भिन्न होती है। पुनः यहाँ भी सैद्धांतिक मतभेद नहीं है क्योंकि कहीं भी उमास्वाति ने यह नहीं कहा है कि मैं काल को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानता है। वे मात्र यह कहते हैं कि कुछ काल को भी स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं। उन कुछ में उमास्वाति स्वयं भी हो सकते हैं । अतः इस आधार पर तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता को प्रशमरति के कर्ता से भिन्न मानना उचित नहीं १. से जहा नामते पंच अस्थिकाया ण कयाति णासी जाव णिच्चा एवामेव लोकेऽवि ण कयाति णासी जाव णिच्चे ।-इसिभासिबाई ३११९ २. आगमयुग का जैनदर्शन, पं० दलसुख मालवणिया-१० २१३-२१४ ३. धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जन्तवो।। एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं ॥-उत्तराध्ययन २८७ ४. 'वत्तणालक्खणो कालो।'-उत्तराध्ययन २८।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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