Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ ७२ : तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा ७. भाष्य की लेखन शैली भी सर्वार्थसिद्धि से प्राचीन है । वह प्रसन्न और गंभीर होते हुए भी दार्शनिकता की दृष्टि से कम विकसित और कम परिशीलित है । संस्कृत के लेखन और जैनसाहित्य में दार्शनिक शैली के जिस विकास के पश्चात् सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है, वह विकास भाष्य में नहीं दिखाई देता ।' अर्थ की दृष्टि से भी सर्वार्थसिद्धि अर्वाचीन मालूम होती है । जो बात भाष्य में है, सर्वार्थसिद्धि में उसको विस्तृत करके और उस पर अधिक चर्चा करके निरूपण किया गया है । व्याकरण और जैनेतर दर्शनों की चर्चा भी उसमें अधिक है। जैन परिभाषाओं का जो विशदोकरण और वक्तव्य का पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि में है, वह भाष्य में कम से कम है । भाष्य की अपेक्षा उसमें तार्किकता अधिक है और अन्य दर्शनों का खंडन भी जोर पकड़ता है । ये सब बातें सर्वार्थसिद्धि से भाष्य को प्राचीन सिद्ध करती हैं । इस तरह तत्वार्थभाष्य पूज्यपाद, अकलंकदेव, वीरसेन आदि से पहले का है और उससे उक्त सभी आचार्य परिचित थे । उन्होंने उसका किसी न किसी रूप में उपयोग भी किया है और उसकी यह प्राचीनता स्वोपज्ञता IT हो समर्थन करती है । स्वोपज्ञभाष्य की आवश्यकता तत्त्वार्थ जैसे संक्षिप्त सूत्र-ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ भाष्य होना ही चाहिए । क्योंकि एक तो जैनदर्शन का यह सबसे पहला संस्कृतबद्ध सूत्र-ग्रन्थ है, जो अन्य दर्शनों के दार्शनिक सूत्रों की शैली पर रचा गया है। जैनधर्मं के अनुयायी इस संक्षिप्त सूत्र - पद्धति से पहले परिचित नहीं थे । वे भाष्य की सहायता के बिना उससे पूरा लाभ नहीं उठा सकते थे। दूसरे इसकी रचना का एक उद्देश्य इतर दार्शनिकों में भी जैनदर्शन की प्रतिष्ठा करना था । इसलिये भो भाष्य आवश्यक है । सूत्रकार को यह चिन्ता रहती है कि यदि स्वयं अपने सूत्रों का भाष्य नहीं किया जायगा तो आगे लोग उनका अनर्थ कर डालेंगे । पाटलिपुत्र में विहार करते हुए उन्होंने अपने इस भाष्य ग्रन्थ की रचना की थी, इसलिए वे आर्य चाणक्य या विष्णुगुप्त के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र (सूत्र 1 १. उदाहरण के लिए देखो अ० १/२, १ / १२, १/३२, और ३ / १ सूत्रों का भाष्य और सर्वार्थसिद्धि | २. देखो, हिन्दी तत्त्वार्थं की भूमिका, पृ० ८६-८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162