Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 106
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ९१ तीर्थंकर नामकर्मबंध के इस तुलनात्मक विवरण में तत्त्वार्थसूत्र का अन्य ग्रन्थों से जो अन्तर ज्ञात होता है, वह इस प्रकार है-जहाँ तक तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञ भाष्य का प्रश्न है-दोनों में सोलह नाम समान हैं, किन्तु दोनों में ही संख्या का स्पष्ट निर्देश नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में प्रवचन प्रभावना के पाँच भेद किये गये हैं-१. बालवत्सलता, २. वृद्धवत्सलता, ३. तपस्वीवत्सलता, ४. शैक्षवत्सलता और ५. ग्लान वत्सलता। यदि हम प्रवचन वत्सलता के स्थान पर इन पाँच उपभेदों को मान्य करते हैं तो तत्त्वार्थभाष्य में तोथंकर नामकर्म बंध के कारणों की संख्या बीस हो जाती है, जो आगे श्वेताम्बर परम्परा में मान्य रही हैं । यद्यपि दोनों में नाम और क्रम में आंशिक अन्तर है। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य बोस कारणों में से तत्त्वार्थसूत्र में १५ समान हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित संवेग श्वेताम्बर परम्परा में अनुपलब्ध है, उसके स्थान पर निम्न पाँच अधिक पाये जाते हैं-१. क्षणलव प्रतिबोधना, २. सिद्ध वत्सलता, ३. स्थविर वत्सलता, ४. तपस्वो वत्सलता और ५. अपूर्व ज्ञान ग्रहण। यदि हम भाष्य की दृष्टि से इन पर विचार करें तो १६ नाम अर्थ की दृष्टि से लगभग समान हैं-तत्त्वार्थभाष्य में 'संवेग, बालवत्सलता, शैक्ष वत्सलता और ग्लान वत्सलता है जबकि आवश्यकनियुक्ति और ज्ञातासूत्र में इनके स्थान पर प्रवचन वत्सलता, क्षणलव प्रतिबोधनता, सिद्धवत्सलता और अपूर्व ज्ञान ग्रहण है । यद्यपि प्रवचन वत्सलता मल में तो है ही और संवेग को अपूर्व ज्ञान ग्रहण से जोड़ा जा सकता है अतः अन्तर मात्र दो में रहता है । जहाँ तक तत्त्वार्थसत्र मूल और यापनीय ग्रंथ षट्खण्डागम का प्रश्न है-दोनों में सोलह कारण उपस्थित होते हुए भो उनमें भी एक नाम में स्पष्ट अन्तर है। जहाँ तत्त्वार्थ में आचार्य भक्ति है, वहाँ षट्खण्डागम में क्षणलव प्रतिबोधनता है, जिसका श्वेताम्बर मान्य आवश्यकनियुक्ति और ज्ञाताधर्मकथा में उल्लेख है। तत्त्वार्थसूत्र की आचार्यभक्ति षट्खण्डागम में अनुपस्थित है। षट्खण्डागम की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा में निम्न चार नाम अधिक हैं-गुरु, सिद्ध, स्थविर एवं तपस्वी वत्सलता। इस तुलना से हम दो निष्कर्ष निकाल सकते हैं, प्रथम यह कि तीर्थकर नामकर्मबन्ध के कारणों के नाम तथा संख्या की दृष्टि से श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर-तीनों ही परम्परा में क्वचित् मतभेद पाया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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