Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 96
________________ तत्त्वार्थसू और उसकी परम्परा : ८३ ८ के अतिरिक्त 'भाग' नामक एक अनुयोगद्वार और है, किन्तु यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो इसमें संख्या के स्थान पर द्रव्य-प्रमाण ऐसा नाम उपलब्ध होता है। यह सत्र दिगम्बर परम्परा का समर्थक है, यह सिद्ध करने के लिए आदरणीय मुख्तार जी यह तर्क भी देते हैं कि षट्खण्डागम में इन आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा उपलब्ध होती है।' षट्खण्डागम में और तत्त्वार्थसूत्र में आठ अनुयोग द्वारों की चर्चा होने मात्र से तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं हो जाता है। प्रथम तो यह कि षट्खण्डागम स्वयं दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है। इस सन्दर्भ में हम विशेष चर्चा पूर्व में कर चुके हैं। पुनः उन्होंने यह निर्णय कैसे कर लिया कि श्वेताम्बर आगमों में आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा ही नहीं है। अनुयोगद्वार सूत्र में जहाँ नैगम नय की अपेक्षा से चर्चा की गई है वहाँ उपरोक्त नौ अनुयोगद्वारों को चर्चा है तथा जहाँ संग्रह नय की अपेक्षा से चर्चा को गई है वहाँ आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा है । पुनः हम पूर्व में ही प्रतिपादित कर चुके हैं कि तत्त्वार्थ सूत्रात्मक शैलो का ग्रंथ है, अतः उसमें अनावश्यक विस्तार से बचने का प्रयत्न किया गया है और यह बात हमें उसकी तत्त्व-विवेचना, मोक्षमार्ग विवेचना, तीर्थंकर नामकर्म विवेचना, अनुयोगद्वार विवेचना आदि सभी में उपलब्ध होती है । जहाँ उसमें आगमों में वर्णित संख्या का संकोच ! किया है । पुनः आगमों की यह शैलो रही है कि उन्होंने विभिन्न अपेक्षाओं से विभिन्न प्रकार के विवेचन किये हैं। जैसे-प्रस्तुत प्रसंग में हो जहाँ श्वेताम्बरमान्य आगम नैगम-व्यवहारनय से चर्चा करते हैं वहाँ नौ अनुयोगद्वारों की और जहाँ संग्रहनय की अपेक्षा से चर्चा करते हैं वहाँ ३ फुसणा य ४ । कालो य ५ अंतरं ६ भाग ७ भाव ८ अप्पाबहुतन्व ९ -अनुयोगद्वार सूत्र, सम्पादक मधुकर मुनि, सूत्र १०५ १. जैन साहित्य और इतिहास पर विशदप्रकाश, पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार । एदेसि चोद्दसाहं जीवसमासाणं परूवणदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगहाराणि णायन्वाणि भवंति-तं जहा-संतपरूवणा, दवपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो, अल्पाबहुगाणुगमो चेदि । --षट्खण्डागम ११११७ (खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, सूत्र ७). २. अनुयोगद्वारसूत्र, सम्पादक मधुकर मुनि, सूत्र १०५, पृ० ६८ ३. वही, सूत्र १२२, पृ० ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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