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८८ : तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा
जैनधर्म की श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा में अन्तर माना जाता है । इसी आधार पर तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्त्ता की परम्परा का निर्धारण करने का प्रयत्न भी किया जाता है । श्वेताम्बर परम्परा के आगम णायधम्मकहाओ, आवश्यकनियुक्ति तथा प्रवचनसारोद्धार में तीर्थंकर नाम कर्म बंध के बीस कारणों का उल्लेख मिलता है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर टीकाओं में तीर्थं - कर नाम कर्म बन्ध के सोलह कारणों का उल्लेख मिलता है ।
तत्वार्थसूत्र मूल में यद्यपि स्पष्ट रूप से सोलह क संख्या का उल्लेख नहीं है, किन्तु फिर भी गणना करने पर उनकी संख्या सोलह ही है ।
१. ( अ ) अरिहंत - सिद्ध-पवयण - गुरु थेर - बहुस्सुए तस्वसीसु ।
वच्छलया य एसि अभिक्खनाणोवआगे अ ।। १ ।। दंसणविणए आवस्सए अ सीलव्वए निरइचारो । खणलवतवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ २ ॥ अपव्वणाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पहावणया । एएहि कारणेहि तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ ३ ॥
(ब) आवश्यक नियुक्ति १७९-१८१, तथा ४५१-५३ (स) प्रवचनसारोद्धार, १० / ३१२ ( देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्क ५८ )
२.
संवेगो
( अ ) " दर्शन विशुद्धि विनयसम्पन्नता शीलबतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगशक्तितस्त्याग-तपसी संघोसाधुसमाधिवैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुत प्रवचनभक्तिरावश्यक परिहाणि मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थ कृत्त्वस्य
तत्त्वार्थ सूत्र ६ / २४ देखें - इसी सूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि टीकायें |
— ज्ञाताधर्मकथा, अध्याय ८
(ब) "दंसणवि सुज्झदाए
विणयसंपण्णदाए सीलवदेसु णिरदिचारदाए आवाससु अपरिहीणदाए खणलवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेग संपण्णदाए जाग तथा तवे साहूणं पासुअपरिच्चागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्च जोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तोंए पवयणभत्तीए, पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणाए अभिक्खणं णाणोवजोग-जुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणाम गोदकमं बंधंति ।" ---षट्खण्डागम, बन्धस्वामित्व, ७/४१
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