Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 59
________________ ४६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा है और इसीलिए वे भाष्य और मूल में असंगति मान रहे हैं । किन्तु यहाँ भाष्यकार ने 'यथोक्त' शब्द का स्पष्टीकरण नहीं करके मात्र 'निमित्त' शब्द को स्पष्ट किया है और बताया है कि निमित्त का तात्पर्य क्षयोपशम रूप निमित्त है। यहाँ मुख्तार जी ने इस सत्य को समझते हुए भी एक भ्रान्ति खडी करके येन केन प्रकारेण भाष्य और मूल में असंगति दिखाने का प्रयास किया है । यथोक्त निमित्त का पूरा स्पष्टीकरण है-क्षयोपशम के निमित्त आगमों में जैसी तप साधना बतायी गया है वैसी तप साधना से प्राप्त होने वाला अर्थात् साधना जन्य अवधि ज्ञान । यहाँ मुख्तार जा कहते हैं कि यदि मूल सूत्र में 'यथोक्त' कहा तो उसके पहले तत्त्वार्थ के किसी पूर्व सूत्र में उसका उल्लेख होना चाहिए था। किन्तु हमें ध्यान रखना है कि उमास्वाति तो आगमिक परम्परा के है, अतः उनकी दृष्टि में यथोक्त का अर्थ है-आगमोक्त । वस्तुतः जो परम्परा आगम को ही नहीं मानती हो, उसको सूत्र में प्रयुक्त यथोक्त शब्द का वास्तविक तात्पर्य कैसे समझ में आयेगा? इसलिए उसने भाष्य के आधार पर मूल में ही पाठ बदल डाला। चूंकि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम तो भवप्रत्यय में भी होता है, अतः सूत्र एवं भाष्यकार ने क्षयोपशम शब्द को मूल में न रखकर भाष्य में रखा ताकि यह भ्रान्ति पैदा न हो कि भवप्रत्यय बिना क्षयोपशम के हो हो जाता है । क्षयोपशम तो दोनों में है। मूल और भाष्य दोनों में संगति का परिचायक जो महत्त्वपूर्ण शब्द है वह तो 'निमित्त' है। उसमें अवधिज्ञान के दो भेद है-भव-प्रत्यय और निमित्त जन्य और यहाँ निमित्त शब्द का अर्थ प्रयत्न या तप साधना से है । इसलिए 'यथोक्त निमित्त'-इस सूत्र का तात्पर्य है, क्षयोपशम हेतू की गई आगमोक्त तपसाधना जन्य । भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय दोनों हो अवधिज्ञान होते तो है अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही-किन्तु जहाँ प्रथम में उस ज्ञान की उपलब्धि के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना होता है, वह जन्मना होता है वहीं दूसरे के लिए प्रयत्न या साधना करनो होती है, अतः उसी जन्म की दृष्टि से पहला विपाक जन्य है तो दूसरा प्रयत्न या साधना जन्य । इस प्रकार भाष्य में 'यथोक्त' का अर्थ क्षयोपशम किया ही नहीं गया है अतः दोनों में असंगति का प्रश्न ही नहीं उठता है । यह जानकर दुःख होता है कि आदरणीय मुख्तार जी इस स्पष्ट सत्य को क्यों नहीं समझ पाये ? शायद सम्प्रदाय का व्यामोह ही इसमें बाधक बना हो । पुनः अवधिज्ञान से सम्बन्धित इन दोनों मूल सूत्रों के श्वेताम्बर भाष्य मान्य और दिगम्बर सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ को देखें तो स्पष्ट हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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