Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 25
________________ १२ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा सूचित करती है कि ये अवधारणाएँ उनके काल तक अस्तित्व में नहीं आयी थीं, अन्यथा आध्यात्मिक विकास और कर्मसिद्धान्त के आधार रूप गुणस्थान के सिद्धान्त को वे कैसे छोड़ सकते थे ? चाहे विस्तार रूप में चर्चा भले हो नहीं करते परन्तु उनका उल्लेख अवश्य करते हैं । तत्त्वार्थसूत्र' में, सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन, निर्जरा के परिणामस्वरूप आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं का चित्रण और इनमें गुणस्थानों के कुछ परिभाषिक नामों को उपस्थिति यही सिद्ध करती है कि उस काल तक गुणस्थान की अवधारणा निर्मित तो नहीं हुई थी, परन्तु अपना स्वरूप अवश्य ग्रहण कर रही थी। तत्त्वार्थसूत्र और गुणस्थान पर श्रमण अप्रैल-जून १९९२ में प्रकाशित मेरा स्वतन्त्र लेख देखे । पं० दलसुखभाई के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित जो दस नाम मिलते हैं, वे बौद्धों की दसभूमियों की अवधारणा पर निर्मित हुए हैं और इन्हों से आगे गुणस्थान की अवधारणा का विकास हुआ है। यदि उमास्वाति के समक्ष गुणस्थान की अवधारणा होती तो फिर वे आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं की चर्चा न करके १४ गुणस्थानों की चर्चा अवश्य करते। ज्ञातव्य है कि कषायपाहडसुत्त में भी तत्त्वार्थसूत्र के समान गुणस्थान सिद्धान्त के कुछ परिभाषिक शब्दों की उपस्थिति होते हए भी सुव्यवस्थित गुणस्थान सिद्धान्त का अभाव देखा जाता है । जबकि कसायपाहुडसुत्त के चूणि-सूत्रों में गुणस्थान सिद्धान्त की उपस्थिति देखी जाती है। कषायप्राभूत के कुछ अधिकारों के नाम तत्त्वार्थसूत्र के समान ही १. (अ) सम्यग्दृष्टि श्रावक विरतानन्तवियोजक दर्शनमोह क्षपकोपशामककोप शांतमोहक्षपक क्षीणमोहजिनाः।-तत्त्वार्थ ९।४५ ।। [इसी अवधारणा से गुणस्थान की अवधारणा का विकास हुआ है, इसका प्रमाण यह है कि पूज्यपाद गुणस्थान की चर्चा में गुणस्थान के अपने नाम के साथ-साथ उपशामक क्षपक आदि उपयुक्त नामों का समन्वय करते हैं-देखे सर्वार्थसिद्धि ११८] ज्ञातव्य है कि कसायपाहुडसुत्त में भी गुणस्थान सम्बन्धी कुछ पारिभाषिक शब्दों के होते हुए भी सम्पूर्ण सिद्धान्त का कहीं निर्देश नहीं है, अतः कसायपाहुडसुत्त और तत्त्वार्थसूत्र की समकालिकता सिद्ध होती है और दोनों स्पष्टतः सम्प्रदाय भेद के पूर्व की रचनायें हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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