Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 42
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २९ सिद्धसेन के उपरोक्त कथन से दिगम्बर परम्परा के विश्रुत विद्वान् पं० नाथरामजी प्रेमी यहो निष्कर्ष निकालते हैं कि उनके इस तरह के वाक्यों से प्रतीत होता है कि वे भाष्यकार को अपने हो सम्प्रदाय का समझते हैं।' यहाँ एक बात स्पष्ट है कि सभी श्वेताम्बर विद्वानों में यह मतैक्य है कि तत्त्वार्थ और उसका भाष्य उनकी अपनी परम्परा का है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र के प्राचीन दिगम्बर टीकाकार मूल ग्रंथ पर विस्तृत टीकाएँ लिखकर भी उस ग्रंथकार के विषय में मौन साधे हुए हैं जो इसी तथ्य का सूचक है कि या तो वे ग्रन्थकार के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते हैं या उसके बारे में जानते हुए भी इसलिए मौन रह जाते हैं कि वह उनकी अपनी परम्परा का नहीं है, अतः उसका उल्लेख ही क्यों करें ? अन्यथा क्या कारण था कि पूज्यपाद देवनन्दी और अकलंक ने उनका कहीं स्मरण नहीं किया ? वास्तविकता यह है कि उमास्वाति उस परम्परा के थे जिसे श्वेताम्बर अपनी मानते थे और जिससे वे निकट रूप में जुड़े हुए थे। दिगम्बरों ने तत्त्वार्थ को यापनीयों से प्राप्त किया था। यापनीय उसी मूल धारा से अलग हुए थे, अतः उन्होंने ग्रन्थ को अपनाकर भी ग्रन्थकार को मान्य नहीं किया। दिगम्बर आचार्यों को इसीलिए कर्ता के सम्बन्ध में मौन साधना पड़ा। जहाँ तक सूत्र, भाष्य और प्रशमरति को एककृतक मानने का प्रश्न है, श्वेताम्बर विद्वानों का इस सम्बन्ध में मतैक्य है, किन्तु दिगम्बर विद्वान् सूत्र, भाष्य, प्रशमरति को एककृतक नहीं मानते हैं उनकी दृष्टि में भाष्य और प्रशमरति किसी श्वेताम्बर आचार्य की रचना है जबकि तत्त्वार्थ किसी अन्य आचार्य की रचना है, जो दिगम्बर था । अतः इस. सम्बन्ध में उनके तर्कों की समीक्षा कर लेना भी आवश्यक है। क्या प्रशमरति प्रकरण और तत्त्वार्थ भाष्य भिन्न कृतक है ? तत्त्वार्थभाष्य और प्रशमरति प्रकरण को भिन्न कृतक सिद्ध करने के लिए दिगम्बर परम्परा के विद्वानों ने उनमें मिलने वाले बहुत अधिक साम्य की उपेक्षा करके उनकी भिन्नता के कुछ उदाहरणों को प्रस्तुत करके यह स्पष्ट किया है कि उनमें जो साम्य है वह तो पूर्व परम्परा की एकरूपता के कारण हैं किन्तु उनमें जो वैषम्य है वह उनकी भिन्न कृतकता को सूचित करता है, अतः इस सम्बन्ध में गम्भीरता से विचार कर लेना १. जैन साहित्य और इतिहास, पं० नाथूरामजी प्रेमी, पृ० ५४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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