Book Title: Tattvartha Sutra aur Uski Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 20
________________ तत्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा : ७ इसकी विस्तार से चर्चा की है । दिगम्बर परम्परा के इन सभी विद्वानों के अनुसार उमास्वाति वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष के पश्चात् ही कभी हुए हैं । किन्तु दिगम्बरों के मतानुसार उस काल तक पूर्व एवं अंगधारी आचार्यों की परम्परा समाप्त हो गई थी । उमास्वाति के सामने अंग एवं पूर्वगत आगमिक साहित्य नहीं था । अतः दिगम्बर परम्परा के विद्वानों को यह कल्पना करनी पड़ी कि उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र का आधार कसायपाहुड, षटखण्डागम, तिलोयपण्णति एवं कुन्दकुन्द के ग्रंथ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि रहे हैं । किन्तु इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् जो अंग और अंग बाह्य आगमों की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं, तत्त्वार्थसूत्र का आधार अंग और अंगबाह्य आगम साहित्य को मानते हैं । स्थानकवासी आचार्य आत्मारामजी ने 'तत्त्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय' नामक ग्रन्थ में तत्त्वार्थ सूत्र की रचना का आधार श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य को बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र की रचना का आगमिक आधार क्या है ? इसे आगमों के उद्धरण देकर परिपुष्ट किया है । आधुनिक दिगम्बर विद्वानों ने भी - षट्खण्डागम, कसायपाहुड और विशेष रूप से कुन्दकुन्द के ग्रंथों को तत्त्वार्थ सूत्रका आधार बताते हुए उनसे उद्धरण प्रस्तुत किये हैं । यद्यपि अभी तक किसी भी दिगम्बर विद्वान् ने तत्त्वार्थ सूत्र - जैनागम समन्वय की शैली में तत्त्वार्थसूत्र के सभी सूत्रों का दिगम्बर परम्परा मान्य आगमतुल्य ग्रन्थों में कहाँ और किस रूप में निर्देश है— इसको स्पष्ट करने वाले किसी ग्रन्थ का प्रणयन नहीं किया है। मात्र पं० परमानन्द शास्त्री जी ने 'तत्त्वार्थसूत्र के बीजों की खोज' नामक लेख में, जो अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ में प्रकाशित है, इस तथ्य का संकेत किया है । दिगम्बर परम्परा के विद्वान् यह भी उल्लेख करते हैं कि श्वेताम्बर आगम तो पाँचवीं शताब्दी के बाद हुई है । तत्त्वार्थसूत्र में तो आगम के उद्धरण हैं ही नहीं, अब रहा तत्त्वार्थभाष्य तो उसके सम्बन्ध में वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि वह तो उसके भी बाद में हो किसी समय लिखा गया होगा । इस सम्बन्ध में पं० फूलचन्द जी, पं० सुखलाल जी के कथन को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हुए यह कहते हैं कि " तत्त्वार्थ भाष्यकार तत्त्वार्थ की रचना के आधाररूप जिस अंग अनंग श्रुत का अवलम्बन किया था, वह पूर्णतया स्थविर पक्ष को मान्य था, अतः तत्त्वार्थभाष्य श्वे० मान्य आगमों के बाद अर्थात् पाँचवीं शताब्दी के पश्चात् कभी १. देखें - तत्त्वार्थ सत्र जैनागम समन्वय, उपाध्याय आत्मारामजी । साहित्य की रचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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