Book Title: Tattvanushasanadi Sangraha
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ २० तत्त्वानुशासनम् । तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाशुभमलापायाद्विशुद्धं शुक्लमभ्यधुः ॥ २२१ ॥ शुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषायरजसः क्षयादुपशमाद्वा। माणिक्यशिखावदिदं सुनिर्मलं निःप्रकंपं च ॥ २२२ ॥ रत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बंधनिबंधनं । ध्यानमभ्यस्यतां नित्यं यदि योगिन्मुमुक्षसे ॥ २२३ ॥ ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण तुद्यन्मोहस्य योगिनः । चरमांगस्य मुक्तिः स्यात्तदा अन्यस्य च क्रमात् ॥ २२४ । तथा ह्यचरमांगस्य ध्यानमभ्यस्यतः सदा । निर्जरासंवरश्च स्यात्सकलाशुभकर्मणां ॥ २२५ ॥ आस्रवन्ति च पुण्यानि प्रचुराणि प्रतिक्षणं । यैर्महर्द्धिर्भवत्येष त्रिदशः कल्पवासिषु ॥ २२६ ॥ तत्र सर्वेन्द्रियामोदि मनसः प्रीणनं परं । सुखामृतं पिबन्नास्ते सुचिरं सुरसेवितः ॥ २२७ ॥ ततोऽवतीर्य मत्येपि चक्रवर्त्यादिसंपदः ।। चिरं भुक्त्वा स्वयं मुक्त्वा दीक्षां देंगंबरीं श्रितः ॥२२८॥ वज्रकायः स हि ध्यात्वा शुक्लध्यानं चतुर्विधं । विधूयाष्टापि कर्माणि श्रयते मोक्षमक्षयं ॥ २२९ ॥ आत्यंतिकः स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीवकर्मणाः । स मोक्षः फलमेतस्य ज्ञानाद्याः क्षायिका गुणाः ॥ २३०। कर्मबंधनविध्वंसादूचं व्रज्यास्वभावतः । क्षणेनैकेन मुक्तात्मा जगच्चूडाग्रमृच्छति ॥ २३१ ॥ पुंसः संहारविस्तारौ संसारे कर्मनिर्मितौ। मुक्तौ तु तस्य तौ नस्तः क्षयात्तद्धेतुकर्मणां ॥ २३२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186