Book Title: Tattvanushasanadi Sangraha
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 161
________________ १५२ ब्रह्महेमचंद्रविरचितः ब्रह्महेमचंद्रविरचितः श्रुतस्कंधः । रिसहावीर अंत चडवीसजिणाण णमहु पयजुयलं । बारस अंगाई सुदं कमविहियं भविय णिसुणेहु ॥ १ ॥ उसप्पिणिअवसप्पिणिकालदुगं जाण दक्खिणे भरहे । सायरको डाकोडी अट्ठदसं भोयभूमिगया ॥ २ ॥ पल्लस्सहमभाएच उदहणं कुलयराण उप्पत्ती । अंतिलणाहिणामो तस्स तिया णाम मरुदेवी ॥ ३ ॥ सुसमदुसमाइअंते वासतयं अट्ठमासपक्खा य । चुलसी दिलक्खपुव्वं नाहीसुयरिसहउप्पत्ती ॥ ४ ॥ वीसं लक्खं पुढचं बालत्तणि रज्जि लक्खतेसडी । णीलंजसाविणासो दिडो संसारविरदो य ॥ ५ ॥ लइओ चरित्तभारो छदमत्थे वरससहसु गउकालो । केवलणाणुप्पणो देवागमु तत्थ संजादो ॥ ६॥ समवसरणपरियरियो विहरइ गणसहिउ भव्व वोहंतो । पुणु सुदु अणाइणिहणं रिसहजिणो तत्थ पयडेइ ॥ ७ ॥ अवगहईहावाओधारण इंदियमणे बहुविहादी । छत्तीसा तिण्णिसया भेया मदिपुव्वसत्थोयं ३३६ वयसमिदिगुत्तियादी आयारंगं कहेइ सविसेसं । अट्ठारसहस्सपर्यं भवियजणा णबहु भावेण १८००० ॥ ९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ॥ ८॥ www.jainelibrary.org

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