Book Title: Tattvanushasanadi Sangraha
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 154
________________ १० तत्त्वसारः । झाणग्गिदड़कम्मे णिम्मल सुविसु द्धलद्धसब्भावे । णमिऊण परमसिद्धे सु तच्चसारं पवोच्छामि ॥ १ ॥ तच्चं बहुभेयगयं पुव्वापरिपहिं अक्खियं लोए । धम्मस्स वत्तणां भबियाण पवोहणडं च ॥ २ ॥ एवं समयं तच्चं अण्णं तह परगयं पुणो भणियं । समयं णियअप्पाणं इयरं पंचावि परमेट्ठी ॥ ३ ॥ तेसिं अक्खररूवं भवियमणुस्साण झायमाणाणं । बुज्झइ पुण्णं बहुसो परंपराए हवे मोक्खो ॥ ४ ॥ जं पुणु सगयं तच्च सवियप्पं हवइ तह य अवियप्पं । सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकष्पं ॥ ५ ॥ इंदियविसयविरामे मणस्स पिल्लूरणं हवे जश्या । तया तं अविअप्पं ससरूवे अप्पणो तं तु ॥ ६ ॥ समणे णिञ्चलभूये णट्टे सव्वे वियपसंदोहे | थक्को सुद्धसहावो अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो ॥ ७ ॥ जो खलु सुद्धो भावो सा अप्पणितं च दंसणं जाणं । चरणपि तं च भणियं सा सुद्धा चेयणा अहवा ॥ ८ ॥ जं अवियप्पं तच्चं तं सारं मोक्ख कारणं तं च । तं णाऊण विसुद्ध झायह होऊण णिग्गंथो ॥ ९ ॥ Jain Education International श्रीः । श्रीदेवसेनकृतः तत्त्वसार: B For Private & Personal Use Only १४५ www.jainelibrary.org

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