________________
पारस्परिक कुछ अन्तर है। जिसे कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार के पुण्य-पाप एकत्वद्वार में इसप्रकार स्पष्ट किया है - "कोऊ सिष्य कहै गुरु पाँहीं, पाप पुण्य दोऊ सम नाँही। कारण रस सुभाव फल न्यारे, एक अनिष्ट लगैं इक प्यारे ॥४॥
श्रीगुरु के समीप कोई शिष्य कहता है कि पाप-पुण्य दोनों समान नहीं हैं। दोनों के कारण, रस, स्वभाव और फल पृथक्-पृथक् होने से एक अनिष्ट/अप्रिय तथा दूसरा इष्ट/प्रिय लगता है।"
इसका ही विस्तार करते हुए वे वहाँ ही लिखते हैं - “संकलेस परिनामनि सौं पाप बंध होई,
विसुद्ध सौं पुण्य बंध हेतुभेद मानिए। पाप के उदै असाता ताकौ है कटुक स्वाद,
पुन्न उदै साता मिष्ट रस भेद जानिए। पाप संकलेसरूप पुन्न है विसुद्धरूप,
दुहु को सुभाव भिन्न भेद यों बखानिए। पाप सौं कुगति होइ पुन्न सौं सुगति होइ,
ऐसो फलभेद परतच्छि परमानिए॥५॥ संक्लेश परिणामों से पाप बंध होता है और विशुद्ध परिणामों से पुण्य बंध होता है - इसप्रकार दोनों में कारण-भेद विद्यमान है। पाप के उदय में असाता होती है, जिसका स्वाद कटुक है और पुण्य के उदय में साता होती है, जिसका स्वाद मधुर है - इसप्रकार दोनों में रस-भेद पाया जाता है। पाप परिणाम स्वयं संक्लेशरूप है और पुण्य परिणाम विशुद्धरूप है - इस प्रकार दोनों में स्वभाव-भेद पाया जाता है। पाप से नरकादि कुगतिओं में जाना पड़ता है और पुण्य से देवादि सुगतिओं की प्राप्ति होती है-इसप्रकार दोनों में फल-भेद भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इन चार तथ्यों से यह स्पष्ट है कि पुण्य-पाप दोनों पृथक्-पृथक् हैं।"
ये ही कविवर पण्डित बनारसीदासजी “उपादान-निमित्त की चिट्ठी' में संक्लेशरूप चारित्र और विशुद्धरूप चारित्रमय चारित्रगुण की दो अवस्थाएँ बताकर, स्थिरतारूप परिणाम को विशुद्धता कहकर, विशुद्धता में
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/३२