Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 236
________________ कथंचित् असत् ही है, कथंचित् उभय और कथंचित् अवाच्य ही है; परन्तु यह सब नय - योग से / अपेक्षा वश ही है; सर्वथा नहीं है। स्वरूप आदि चतुष्टय (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव ) की अपेक्षा वस्तु के सद्भाव / अस्तित्व को कौन स्वीकार नहीं करेगा? अर्थात सभी स्वीकार करेंगे ही। इससे विपरीत अर्थात् पररूप आदि चतुष्टय (परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव) की अपेक्षा वस्तु का असद्भाव / नास्तित्व ही है। यदि ऐसा न हो तो वस्तु की व्यवस्था ही व्यवस्थित नहीं हो सकेगी। सत्-असत् - दोनों को क्रम से ग्रहण करने की अपेक्षा वस्तु दोनों / उभयरूप ही है। इन दोनों को एक साथ कहने की सामर्थ्य नहीं होने से वस्तु कथंचित् अवाच्य है। इसीप्रकार अपने-अपने कारणों से अवक्तव्य के साथ शेष तीन भंग अर्थात् स्यात् सत् अवक्तव्य, स्यात् असत् अवक्तव्य और स्यात् उभय अवक्तव्यरूप भी वस्तु है । 1 तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक होने के कारण अपेक्षा विशेष से तो वह अनेकानेक रूप दिखाई देती है; परन्तु सर्वथा नहीं । सर्वथा किसी एकरूप ही वस्तु को मान लेने पर मिथ्या एकांत का दोष आता है; क्योंकि यह वस्तु के सन्दर्भ में यथार्थ ज्ञान - श्रद्धान नहीं होने से हम अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकेंगे; वस्तु को यथार्थ जानने-मानने पर ही हम उसका यथार्थ उपयोग कर सकते हैं। - अनन्त-धर्मात्मक प्रत्येक वस्तु को एक साथ जानना - मानना सम्भव होने पर भी एक साथ कहना / समझाना सम्भव नहीं है; अतः कहते समय प्रयोजन परक किसी एक धर्म को मुख्यकर, शेष धर्मों की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी उन्हें गौणकर, मुख्य का प्रतिपादन किया जाता है। ऐसी स्थिति में उस वाक्य के साथ अन्य धर्मों की सत्ता - स्वीकृति का सूचक 'स्यात्' पद जोड़ दिया जाता है; जिससे अन्य धर्मों का निषेध भी नहीं होता है और अपना प्रयोजन भी सिद्ध हो जाता है। जैसे वस्तु स्यात् सत् है, स्यात् असत् है इत्यादि । अपनी अपेक्षा को स्पष्ट कर देने पर उसे दृढ़ता प्रदान करने के लिए इसके साथ 'एव / ही' शब्द का प्रयोग भी किया जाता है । जैसे स्वद्रव्य आदि • देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) / २३१ 1

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