Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 237
________________ स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु सत् ही है। इसे संक्षेप में वस्तु स्यात् सत् एव' - ऐसा कहा जाता है। यही स्याद्वादशैली कहलाती है। अनन्त-धर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों को एक साथ कहना सम्भव नहीं होने से कथन में स्याद्वाद शैली अपनानी ही पड़ती है। परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्म-युगल संबंधी वक्तव्य-अवक्तव्य को लेकर सात तथ्य होने से उन संबंधी सात वाक्य बन जाते हैं। जो इसप्रकार हैं - वस्तु स्यात् सत्, स्यात् असत्, स्यात् सत्-असत्/उभय, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् सत् अवक्तव्य, स्यात् असत् अवक्तव्य, स्यात् सत्-असत्/उभय अवक्तव्य है। इन्हें ही सप्त-भंगी कहते हैं, जो कि स्याद्वाद की विनियोग-परिपाटी है। प्रत्येक धर्म-युगल संबंधी सप्तभंगी के रूप में प्रत्येक वस्तु संबंधी अनंत सप्तभंगी हो जाती हैं। इसप्रकार अनंत-धर्मात्मक वस्तु के अनंत धर्मों को एकसाथ कहने की क्षमता किसी में भी नहीं होने से स्याद्वाद की सिद्धि स्वत: ही हो जाती है।० - परमहितकारी मार्ग-दर्शन - मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं। सम्मत्त पहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण ॥९०॥ णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ॥१५६॥ लम॑णं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते। तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ।।१५७।। जीव ने मिथ्यात्वादि भाव पहले अति दीर्घ काल से भाए हैं; परन्तु इस जीव ने सम्यक्त्वादि भाव नहीं भाए हैं; (अत: अब उन्हें भाओ)।।९०॥ ___ नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धिआँ हैं; इसलिए स्वसमयों तथा परसमयों के साथ (स्वधर्मिओं तथा परधर्मिओं के साथ) वचन-विवाद छोड़ने-योग्य है।।१५६।। ___जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य) निधि को प्राप्त कर अपने वतन में (गुप्तरूप से) रहकर उसके फल को भोगता है; उसीप्रकार ज्ञानी परजनों के समूह को छोड़कर ज्ञाननिधि को भोगता है।।१५७॥ -आ. कुन्दकुन्ददेव, नियमसार - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२३२

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