Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 235
________________ दोनों स्वीकार करना उभयैकान्त है। इसका निषेध करते हुए वे वहीं लिखते हैं — विरोधान्नोभयैकान्तं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ॥ १३, पूर्वार्ध ॥ स्याद्वादन्याय से विद्वेष रखनेवाले उभयैकान्तवादिओं के यहाँ भावैकान्त और अभावैकान्त में परस्पर विरोध होने से उभयैकान्त भी नहीं बनता है; क्योंकि उसमें पूर्वोक्त दोनों के सभी दोष आ जाते हैं। इसप्रकार परस्पर विरुद्धता वाले सभी दोष इसमें विद्यमान होने से यह सर्वथा उभयैकान्त भी मिथ्या है। - ४. अवाच्यतैकान्त:पदार्थ के संबंध में कुछ भी कहना सर्वथा सम्भव नहीं है - ऐसा मानना, अवाच्यतैकान्त है। इसका निषेध करते हुए वे लिखते हैंअवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ १३, उत्तरार्ध ॥ अवाच्यतैकान्त स्वीकार करने पर 'वस्तु अवाच्य है' - ऐसा कहना भी सम्भव नहीं हो सकेगा; क्योंकि 'अवाच्य' शब्द के द्वारा वाच्य हो जाने पर अवाच्यतैकान्त खण्डित हो जाता है। किसी भी वस्तु के संबंध में संज्ञा / नाम आदि प्रचलित हैं, समझनेसमझाने का व्यवहार भी प्रचलित है; अत: सर्वथा अवाच्यतैकान्त भी मिथ्या है। इसप्रकार इन ५ कारिकाओं द्वारा आचार्यश्री समंतभद्र स्वामी ने चारों ही एकांत मान्यताओं का निषेध कर दिया है। इसके बाद वे वहीं ३ कारिकाओं द्वारा स्याद्वाद की सिद्धि करते हैं। जो इसप्रकार है. - " कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥ १४ ॥ सदेव सर्वं को नेच्छेत्, स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५॥ क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगा: स्वहेतुत: ॥ १६ ॥ हे भगवन ! आपका बताया हुआ वस्तु-स्वरूप कथंचित् सत् ही है, तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / २३०

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