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श्रीमद्वार्तिकेय स्वामी अपने 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' ग्रन्थ में इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"पुव्वपरिणामजुत्तं, कारणभावेण वट्टदे दव्वं ।
उत्तरपरिणामजुदं, तं चिय कज्जं हवे णियमा ॥ २३०॥ पूर्व परिणाम से युक्त द्रव्य कारणरूप से परिणमित होता है और उत्तर परिणाम से युक्त वही द्रव्य नियम से कार्य होता है । "
उपर्युक्त विवक्षा में अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय से युक्त द्रव्य को कारण और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय के उत्पाद से युक्त द्रव्य को कार्य कहा गया है ।
इस पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जो कारण स्वयं ही नष्ट हो गया है, वह कार्य का उत्पादक कैसे हो सकता है ? इसी प्रश्न के उत्तररूप में क्षणिक उपादान की दूसरी विवक्षा प्रस्तुत है। नयचक्रकार 'माइल्ल धवल' अपने ‘द्रव्य-स्वभाव-प्रकाशक नयचक्र' में इसे इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "उप्पज्जंतो कज्जं, कारणमप्पा णियं तु जणयंतो ।
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तम्हा इह ण विरुद्धं, एकस्स वि कारणं कज्जं ॥ ३६५॥ उत्पद्यमान पर्याय कार्य है, उसे उत्पन्न करनेवाला आत्मा कारण है; अत: एक ही द्रव्य में कारण-कार्य का भेद विरुद्ध नहीं है । "
इसे ही स्पष्ट करते हुए 'भट्ट अकलंक स्वामी' 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में लिखते हैं.
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“पर्याय एवार्थः कार्यमस्य न द्रव्यम् । अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात्, स एवैकः कार्यकारणव्यपदेशमार्गात् पर्यायार्थिकः ।
इसका पर्याय ही अर्थ, कार्य है; द्रव्य नहीं । विनष्ट और अनुत्पन्न होने से अतीत और अनागत पर्यायों के व्यवहार का अभाव होने के कारण इस पर्यायार्थिक की अपेक्षा एक वर्तमान पर्याय में ही कार्य-कारण का व्यपदेश होता है। "
इस अपेक्षा कथन करने पर उस समयवर्ती पर्याय की उसीसमय होने रूप योग्यता क्षणिक उपादान कारण है और वह पर्याय कार्य है। उपादान - निमित्त / ४९