Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 214
________________ आप्त/तीर्थंकर को महान मानने का निषेध कर वीतरागता और सर्वज्ञता से ही महानता के तथ्य को स्पष्ट करते हुए सामान्य और विशेष दोनों रूपों में सर्वज्ञता की सिद्धि की गई है। तदनन्तर सर्वथा एकान्तवादिओं के मत में लोक-परलोक आदि की कुछ भी व्यवस्था सम्भव नहीं होने का निरूपण २ कारिकाओं द्वारा करके वस्तु को सर्वथा भावरूप मानने पर अर्थात् अभावों का सर्वथा निषेध करने पर प्रत्येक कार्य अनादि या अनन्त हो जाएगा; सर्व संकर हो जाएगा, किसी भी वस्तु का अपना प्रतिनियत स्वरूप नहीं रहेगा - यह तथ्य ९ से ११ पर्यंत तीन कारिकाओं द्वारा स्पष्ट किया है। बारहवीं कारिका में सर्वथा अभावमात्र को मानने पर आने वाली समस्याओं का निरूपण कर तेरहवीं कारिका में सर्वथा उभय तथा सर्वथा अवाच्य एकान्त मानने पर उत्पन्न समस्याओं का निरूपण करने के बाद १४ से २२ पर्यंत ९ कारिकाओं द्वारा स्याद्वादनय से वस्तु को परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले भाव-अभावरूप धर्म युगलमय अनेकान्तात्मक बताकर उन्हें सप्तभंगात्मक सिद्ध किया है। अंतिम तेईसवीं कारिका द्वारा एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि धर्मयुगलों में भी इसीप्रकार सप्तभंगी की योजना करना चाहिए - ऐसी सूचना देकर परिच्छेद पूर्ण किया है। २. द्वितीय परिच्छेद : २४ से ३६ पर्यंत १३ कारिकाओं वाले इस परिच्छेद में सर्वप्रथम चार कारिकाओं द्वारा सर्वथा अद्वैत एकान्त की समीक्षा की गई है। २८वीं कारिका द्वारा सर्वथा द्वैत एकान्त की आलोचना कर, २९ से ३१ पर्यंत तीन कारिकाओं द्वारा बौद्धों के अनेकवाद की मीमांसा की गई है। ३२वीं कारिका द्वारा वस्तु को सर्वथा एक और सर्वथा अनेकरूप सर्वथा उभय एकान्त मानने पर आने वाले दोषों की समीक्षा कर ३३ से ३६ पर्यंत ४ कारिकाओं द्वारा स्याद्वाद नय से परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले एक-अनेक युगल में सप्तभंगी घटितकर, अनेकान्त की स्थापना करते हुए यह प्रकरण पूर्ण किया है। ३. तृतीय परिच्छेद : ३७ से ६० पर्यंत २४ कारिकाओं वाले इस तृतीय परिच्छेद में सर्वप्रथम ३७ से ४० पर्यंत ४ कारिकाओं द्वारा सांख्यों के सर्वथा नित्य एकान्त की मीमांसा करके ४१ से ५४ पर्यंत १४ कारिकाओं - देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा)/२०९

Loading...

Page Navigation
1 ... 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238